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Sunday, 14 September 2025

हिंदी दिवस विशेष

 हिंदी दिवस विशेष 






पूरा विश्व हिंदी दिवस मना रहा है। वैसे तो अब हिंदी को किसी पहचान की जरुरत नहीं है फिर भी समयानुसार इसके सामने अपनी पहचान के साथ साथ खुद को और आगे ले जाने के लिए और चुनौतियाँ खडी होती चली जा रही है। बहुत सी भाषाएँ हैं जो एक मंच तक पहुचने के बाद अपनी सभी चुनौतियों को ख़त्म कर चुकी हैं। लेकिन पता नहीं क्यों हिंदी के इतनी ऊँचाई पर पहुँचने के बाद भी उसकी चुनौतियाँ और विरोधी आज भी उठ खड़े होतें हैं। यह कुछ ऐसा है अगर ऐसे ही मजबूती के साथ आगे बढी तो उसे पहला स्थान भी प्राप्त हो सकता है।  और थोड़ा भी लडखडाई तो वहीँ से उसके अंत की भी शुरुआत भी हो सकता है। लेकिन हिंदी जिस प्रकार से आगे बढ़ रही है उसके हिसाब से लगता नहीं है की वह इतनी आसानी से हार मानेगी। 
फिरभी इसके विरोधी पहले तो थे ही लेकिन अभी वर्तमान समय में इसके विरोधी कुछ ज्यादा ही मुखर होकर सामने आये हैं। यह मुखरता पहले भी थी लेकिन जिस रूप में आब सामने आ रही है वह हिंदी के आगे की राह और आसानी की होगी इसके बारे में थोड़ी शंका पैदा करती है। शंका इसलिए भी मजबूत होती है जिन क्षेत्रों में हिंदी पहले से मजबूत थी या उनके बल पर ही आजतक इतना बड़ा सफ़र तय की है अब वहां के लोग भी अपने घर की भाषा को आगे करने लगे हैं। उसके प्रसार प्रचार में अपना सबकुछ झोकने लगे हैं। ये सब करते हुए हिंदी को कितना पराया बतलाया जा सकता है उतना उनकी तरफ से हिंदी को पराया बतलाया जा रहा है। अब चूँकि हिंदी का विस्तार इतना ज्यादा हो गया है कि वे हिंदी का तो ज्यादा भला बुरा कर नहीं सकते हैं लेकिन वे कुछ न कर सकने के एवज में हिंदी बोलने वालों पर जरुर किसी न किसी बहाने अपनी कुंठा निकालने लगे हैं। हिंदी बोलने वालों के साथ मारपीट, उन्हें बात पर नीचा दिखाने लगे हैं। उन्हें लगभग दोय्यम दर्जे का व्यक्ति मान लिया गया है। समाज में प्रचलित कर दिया गया है या तो लगभग ये बता दिया गया है कि अगर कोई अपनी अभियक्ति या कोई भी बात हिंदी में रखता है तो या तो वो आर्थिक रूप से कमजोर है या सामजिक रूप से अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ व्यक्ति है। हिंदी को कमजोर करने में अलग अलग भाषाई लोग तो हैं ही और उनसे ज्यादा वे लोग खतरनाक के रूप में छिप छिपाकर सामने आते हैं जिनका हिंदी क्षेत्र में ही हुआ है लेकिन उन्होंने अपनी तरक्की को और सुनच्चित करने के लिए अंग्रेजी को या तो एकदम से आत्मसात कर लिया है या उसे आत्मसात करने में आपना जी जान लगा रहे हैं। 
अलग अलग भाषाई के लोगों का विरोध समझ में भी आता है है कहीं न कहीं जरुरी भी लगता है। क्योंकि सभी को अपनी पहचान यानि अपनी संस्कृति को ज़िंदा रखने ही नहीं उसका प्रसार प्रचार करने की पूर्ण रूप से आजादी है लेकिन जब हिंदी क्षेत्र के लोग ही गाहें बगाहें हिंदी का तिरस्कार करने लगे तो हिंदी के आगे के स्वस्थ डगर पर शंका भी होती है और चिंता भी बढ़ती है। क्योंकि ऐसे लोग छिपकर हिंदी या हिंदी बोलने वालों का तिरष्कार करने के लिए अंग्रेजी के माध्यम से लोगों को जागरूक करते रहते हैं।  लोगों को सीधे तौर पर नहीं तो पीछे के रस्ते से कुछ ऐसा माहौल बनाने की लगातार कोशिश करते रहते हैं कि आपका भविष्य और तरक्की हिंदी को छोड़ने में और अंग्रेजी व अंग्रेजियत को अपनाने में ही है।उन्हें लगता है जिन्हें अंग्रेजी आती है वे संभ्रांत होते हैं और जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती है वे भले पढ़े लिखे और आर्थिक रूप से मजबूत क्यों न हों वे संभ्रांत में नही आते हैं और ये थ्योरी साथ में इसे मजबूती मिलती है अंग्आरेजी शासन काल के समय का। क्तीयोंकि तब जिसे अंग्रेजी आती थी अंग्रेज उसका सम्मान करते थे। लगभग उन्हें संभ्रांत समझकर अपने बराबर बैठाते थे। भले अंग्रेज ७८वर्ष पहले हमारे देश को छोद्कार चले गए लेकिन उन्होंने भारत की भारतीयता को धीरे धीरे समाप्त करने के लिए एक मीठा सा जहर देकर चले गए जो धीरे धीरे अब भारत की भारतीयता अब आपस में बिना उनके लड़वाकर समाप्त करवा रही है। अब हमारे अपने लोग भी उन लोगों के साथ वैसा ही बर्ताव करने लगे हैं जैसा अंग्रेज अपने गुलामों के साथ करते थे। 
अंग्रेजों से पहले भी बहुत से बाहरी आक्रमणकारी भारत आये और लगभग उन्होंने यहाँ पर नौ सौ वर्ष तक राज भी किया लेकिन उन्होंने कभी हिंदी या किसी और भारतीय भाषा का इतना अनादर नही किया जितना अनादर भारत की स्कावतंत्रता के बाद धीरे धीरे हिंदी के साथ हुआ। इसमें सरकारों काभी उतना ही हाथ है जितना हिंदी बोलने वाले क्षेत्रों का हैं। प्रारम्भिक शिक्षा तो हिंदी में दिए लेकिन जहाँ से रोजगार या अपना जीवन यापन करने के लिए कुछ सीखना था उस शिक्षा को अचानक में अंग्रेजी में बदल दिया।  अब शुरुआत कि पढाई आप किसी और भाषा में किये हो और अचानक आपको एक स्तर पर आने पर किसी और भाषा से परिचय हो तो आप कितने भी क्यों न तेज हों आपकी हालत एकबार खराब होना लाजिमी है फिर सोचिये जो पहले से ही कमजोर हो उनकी क्या हालत होती होगी। फिर उनके पास दो ही आप्शन होते हैं या तो और पढाई को समय दे या वहीँ भाषा को विषय बनाकर वहीँ उस पढाई को छोड़ दे। लेकिन दोनों सूरत में कोई अगर विलेन बना तो वो है हिंदी क्योंकि जो आगे बढेगा वो भी बोलेगा अगर शुरुआत से ही अंग्रेजी में पढाई किये होते तो इतनी समस्या का सामना करना नहीं पड़ा होता वहीँ जिसने बिच में ही छोड़ दिया वह भी लोगों के सामने यही बोलेगा कि अगर शुरू से से अंग्रेजी में पढ़ा होता तो आज मुझे अपनी पढाई बीच में ही छोड़नी नहीं पड़ी होती। और फिर दोनों मिलकर उसके साथ जो हुआ उसका बदला इस रूप में हिंदी से लेते की अपने बच्चों को या जो भी उन्हें मिलता उन्हें अपने भूत के अनुभवों को साझा करके अंग्रेजी की तरफ मोड़ने में अपना सौ प्रतिशत योगदान देते। 
इतना कुछ होने के बावजूद भी हिंदी आज भी एक कछुए के सामान धीरे धीरे चलती चली जा रही है और जो भाषा दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओँ से मिलकर बनी थी वो विश्व में सबसे ज्यादा लोगों के द्वारा बोली जाने वाली भाषाओँ में से आज एक हैं। यह दर्शाता है कि हिंदी कितनी सरल और लोगों में आसानी से घुल मिल जाने वाली भाषा है।  इसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हिंदी ने कभी खुद को प्रमोट नहीं किया। जो मिला, जिस रूप में मिला, उसे अपना भाग्य समझकर उसमे ही घुलती मिलती स्वीकार करती चली गयी। उसके इसी रूप या स्वभाव की वजह से आज देखते हैं कि वो भारत में ही नहीं पुरे विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओँ में से एक है। और निरन्तर अपने खुद के प्रयासों से  आगे बढ़ती ही चली जा रही है . उर्दू को अस्तित्व में आने के बाद उसे एक तरह से मजबूत राजकीय सरंक्षण मिला जिससे उसका विकास उस समय के राजाओं और बादशाहों के शासन काल में बहुत ही तेजी से हुआ। अंग्रेजों ने भी अंगेरजी के बाद अगर किसी भाषा को सबसे ज्यादा सम्मान दिया तो वो है उर्दू को, चाहे जो भी कारण रहे हो। हिंदी तो कहीं भी इन दोनों के बिच दिखती भी नहीं थी। लेकिन हिंदी ने एक बहुत बड़ा काम जो किया वो था आजादी के सभी परवानो को अपनी सरल भाषा के माध्यम से एक करना और सभी आजादी के मतवालों को आम जन तक पहुँचाने में एक बहुत बड़ा पूल बनना, उन्हें मदत करना।  जैसे एक डाकिया दो व्यक्तियों के बिच पूल बनाकर या उनकी मदत करके उनकी लिखी हुयी बातों को उनतक पहुँचाने का काम करता है। कुछ वैसा ही काम हिंदी ने भी किया और धीरे धीरे पहले लोगों की आवाज बनी उसके बाद धीरे धीरे से आधे से ज्यादा भारतियों के दिल में अपनी जगह बना ली। 
आज हिंदी सिर्फ लोगों की भाषा नही है दो राज्यों को जोड़ने वाली भाषा बन गयी है। आज हिंदी उन स्थानों पर भी धीरे धीरे से ही सही लेकिन पैठ बना रही है जिन क्षेत्रों ने हिंदी के प्रति सबसे पहले विरोध का बिगुल बजाया था। वहाँ की फिल्मे धड़ा धड़ हिंदी में डब हो रही है। अब तो ऐसा हो रहा है उनकी फिल्म एक साथ एक उनकी भाषा में बन रही है तो दूसरी तरफ हिंदी में भी बन रही है। हिंदी और हिंदी के लोग भी सब कुछ भुलाकर उतना ही उनकी फिल्मो को प्यार दे रहे हैं जितना उनकी भाषा के लोग उनकी फिल्मों को देते हैं। इसी का परिणाम है कि अब दक्षिण सिर्फ हिंदी में फिल्मे ही नहीं बना रहा है फिल्म से जुड़े उनके लोग हिंदी भाषा के क्षेत्रों में जाकर प्रचार प्रसार भी कर रहे हैं। साक्षात्कार भी बड़े और छोटे समाचारपत्रों को दे रहे हैं। इस प्रकार से हिंदी सिर्फ लोगों की भाषा ही नहीं हिंदी भारत की व्यापारिक भाषा भी बन गयी है। और यह सिर्फ फिल्मों तक ही नहीं सिमित है।  यह हर वस्तु के क्रय विक्रय तक पहुँच गया है।  जिसकी वजह से हिंदी सिर्फ भाषा नहीं एक व्यापारिक भाषा भी बन गयी है और अंग्रेजी को चुनौती दे रही है। 
ये सब एक दिन में नहीं हुआ है। यहाँ तक पहुँचने में हिंदी को बहुत से लोगों का विरोध उलाहने देखना और सुनना पड़ा। दुसरे तो दुसरे उसके अपने भी समय के अनुसार अब हिंदी को पीछे रस्ते से ख़त्म करने लगे हैं।  लेकिन हिंदी ने कभी इन सब चीजों के बिच में अपने उद्देश्य को नहीं भूली। धीरे धीरे ही सही निरंतर सतत कछुए के सामान चलती रही।  और आज इतना कुछ मिलने के बावजूद भी वह धीरे धीरे सतत चल रही है। उसे पता है जबतक चलूंगी तबतक मुझे कोई किसी भी हालत में रोक नहीं पायेगा।  और भाषाओँ का हासिये पर जाने का सबसे बड़ा कारण है वे या तो किसी एक कि बन कर रही या अपने को एक सीमा में बाधने का प्रयास किया। जिसकी वजह से वे हिंदी से ज्यादा प्रसन्न होने के बावजूद कहीं न कहीं खुद के लोगों से ही सही लेकिन एक लडाई लड़ रही है।  लेकिन हिंदी के साथ ऐसा नहीं हुआ। वह कभी किसी एक के पल्लू में नहीं बंधी। उसने सभी को स्वीकार किया  और धीरे धीरे उन लोगों से खुद को स्वीकार करवाया। सबसे बड़ा उदाहरण है हिंदी का हिंगलिश होना यानि अंग्रेजी के शब्दों को भी अपने अन्दर समाहित करना और समयानुसार उन्हें अपने ही शब्द बना लेना। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहाँ पर व्यक्ति को अंग्रेजी तो छोडिये हिंदी भी पढने नही आता है और वह व्यक्ति धडले से अंग्रेजी शब्द बोलता हा है वो भी बिना किसी गलती के।   
हिंदी के विकास या आम जन तक पहुँचाने में हिंदी सिनेमा का भी बहुत बड़ा हाथ है। एक तरह से ये भी बोल सकते हैं दोनों एक दुसरे के पर्यायी हैं। आज भारत ही नहीं दुनिया भर में भारतीय सिनेमा के माध्यम से हिंदी में लिखे और गाये हुए गीत गुनगुनाते हुए बहुतों को देखा और सूना जा सकता है। हिंदी भारतीय लोगों एवं भारतीय सिनेमा के माध्यम से पुरे विश्व में जानी और पहचानी जाने लगी है। आज हिंदी उस मुकाम पर है जहाँ तक भारत की बहुत सी भाषाओँ ने एक प्रयास तो जरुर किया लेकिन उन्हें वह मुकाम हासिल नहीं हुआ।  उर्दू को एक मंच जरुर मिला लेकिन शुरुआत में वो सबकी भाषा बनी तो उसका विकास तेजी से हुआ लेकिन जैसे ही वो किसी एक की तरफ झुकती चली गयी वह भी हासियें पर जाकर एक विशेष की भाषा बनकर रह गयी। हिंदी के विकास में एक और खास बात थी उसकी सरलता वाली लिखावट।  जिसे थोड़े से प्रयास में आसानी से और अच्छे से लिखा भी जा सकता था और पढ़ा भी जा सकता था। इसलिए भी लोग इसकी तरफ आकर्षित हुए। थोड़े से प्रयास में आप भले कभी हिंदी न पढ़े हो या उससे किसी रूप में पाला पड़ा हो फिर भी आप आसानी से और बहुत ही अच्छे से बोल सकते थे। इसका सबसे बड़ा उदहारण काग्रेस दल की मुखिया सोनिया गाँधी है। जो मूल रूप से इटली की होने के बावजूद आज बहुत ही अच्छे से हिंदी बोल लेती हैं।  
हिंदी के विकास में अगर सबसे बड़ी बाधा कोई है तो वो है लोगों की उसके प्रति सोच। अगर सामान बेचना है तो हिंदी को आत्मसात करने में लोग थोड़ा भी हिचकिचाते नहीं हैं लेकिन जब उसे घर पर बोलने या घर पर थोड़ा सम्मान देने की बारी आती है तो तुरंत दुसरे तो करते ही हैं वे लोग भी नाक सिकोड़ने लगते हैं जो खुद उसी हिंदी के छत्र छाया में पले बढे ही नहीं हैं उसी की मिट्टी से हैं भी। भारतीय सिनेमा के लोग भी फ़िल्मी परदे पर तो अपने कलाकारी को हिंदी में जिवंत करते हैं लेकिन जैसे ही उससे बाहर आते हैं तो ऐसा लगता ही नही हैं की ये हिंदी के पैरवीकार हैं। उनकी बोलचाल में हिंदी के पांच प्रतिशत शब्द होते हैं तो अंग्रेजी के पंचानबे प्रतिशत शब्द होते हैं। फिर भी हिंदी बिना किसी शिकायत के आगे बढ़ रही है। 
हिंदी को ज्यादा कुछ नहीं चाहिए वह तो खुद ही सतत चलते हुए अपनी मंजिल की तरफ बढ़ती रहती है  लेकिन अगर उसे थोड़ा सम्मान मिल जाता है तो ये उसके लिए और आगे बढ़ने के लिए एक तरह की टोनिक मिल जाता है। हिंदी को अगर सही मायनों में आगे बढ़ाना है तो इसे लोगो की भाषा, व्यापार की भाषा, सिनेमा की भाषा से आगे ले जाकर तांत्रिक और विज्ञान की भाषा भी बनानी होगी। इसे दीवानी फौजदारी के आगे ले जाकर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की भी पूर्णकालिक भाषा बनानी होगी। जब लोग ज्यादा से ज्यादा हिंदी में काम करेंगे तब लोग इसे अपनाने में हिचकिचाएंगे नहीं।  उलटे वे ही हिंदी की और पैरवी करेंगे। 
- अजय चंद्रभूषण नायक 

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