अगर उसे जीने का हक था तो
फिर उसका बाज़ार में बिक जाने का भी हक था
अगर उसका मरना सही था तो
फिर उसका जीवन में जीने का भी हक था
अगर उसका एक पहलू नकारात्मक था
फिर उसे अपना दूसरा पहलू सकारात्मक करने का भी हक था
तुम्हे निर्णय लेने का मौका मिला था तो
उसे भी कम से कम एक निर्णय लेने का मौका मिलने का हक था
दो या न दो ये आपका हक था
उसे मिले ये उसका एक वाजिब अधिकार था
–अjay नायक ‘वशिष्ठ’
रोटरी क्लब ऑफ अंबरनाथ ईस्ट के साथ में एक दिल को छू लेने वाले प्रोजेक्ट में भाग लिए। शायद ही ऐसा हो उन छोटे बच्चों के चेहरों को याद करें और आंखों में पानी भी जमा न हो।
धनतेरस है पूरा बाजार खरीदारों से भरा पड़ा है। हर कोई न कोई कुछ न कुछ खरीद रहा है। बस फर्क इतना है कि कोई महंगा खरीद रहा है तो कोई अपने औकात के अनुसार। कोई अपने लिए न सही अपने बच्चों के लिए तो खरीद ही रहा है। खरीदना सबका अधिकार भी है। खरीदेंगे नहीं तो बाजार कैसे चलेगा। लोगों की जीविका कैसे चलेगी। इन्ही सबके के बीच में कुछ ऐसे भी हैं जो कुछ नहीं खरीद सकते हैं। अच्छा वे खुद तो कुछ नहीं खरीद सकते हैं लेकिन उनके उनके मां बाप रहकर भी वे इन सब चीजों से बहुत दूर हैं। वे अनाथालय में लोगों के भरोसे पर है। कभी कभी लगता है कि अगर माँ बाप हैं तो वे अनाथालय में कैसे हैं? उनके माँ बाप क्यों नहीं देखते हैं ? वे दारू बाज हैं तो हम क्या करें। हमारे मन में बहुत से सवाल उठते हैं साथ में उसके जवाब भी हम ढूढ़ लेते हैं। लेकिन हम हर बार जो सोचते हैं जरुरी नहीं है कि वो सच ही हो बहुत से माँ बाप की अलग ही मज़बूरी होती है खासकर माँ की। हम इसपर फिर कभी बात कर सकते हैं। आज बात है दीपावली या किसी भी पर्व पर उन बच्चों के अंदर उठने वाले भावनाओं पर।
अन्य बच्चों की तरह उनकी भी इच्छाएं तो बहुत है लेकिन खिड़की तक आते आते दम तोड़ देती हैं! मां भी हैं बाप भी हैं या दोनों में से कोई न कोई एक तो है लेकिन समय पर या दरवाजे पर कोई नज़र नहीं आता है। शायद उनकी कोई मजबूरी होगी जो अपने बच्चों को उन्हें उनसे दूर रखना पड़ रहा होगा लेकिन एक चार साल के बच्ची की क्या मजबूरी रही होगी? जो दोनों में से एक भी लेने के लिए नही आ रहे हैं। लेना तो छोड़िए त्यौहार है एक सेट कपड़ा ही दे जाते, वो भी नहीं। फटाखे और मिठाईयां दूर की बात है। कुछ बच्चे तो ऐसे हैं जो लोगों के अय्याशियों की सजा भुगतने के लिए धरती पर आए हैं। और किसी न किसी अनाथालय में पड़े हुए हैं।
जब हम चारो तरफ बनते बड़े बड़े आलीशान घरों, सड़कों, को देखते हैं तो लगता है हमने बहुत तरक्की कर ली है। जरुरतमंद लोगों के लिए बहुत सी व्यवस्था करवा दिए हैं। लेकिन जब थोड़ा अंदर तक पड़ताल करते हैं तो पता चलता है बाहर से जो जितना सुन्दर दीखता है वो उतना होता नहीं है। मेरे मतानुसार खुद को आधुनिक या सभ्य समाज कहना बहुत ही जल्दीबाजी है। अभी भी बहुत बड़ी खाईयां हमारे अंदर और आसपास है जिससे रूबरू होने पर हमे शर्मसार ही होना पड़ता हैं। सोचने पर मजबूर करती हैं कि जब अनपढ़ थे हमारे पास कुछ नहीं था हमारे लोग तब सही थे या आज जब हर एक चीज में खुद को उन्नत करते करते खुद को चाँद के करीब या चांद पर पहुंचा रहे हैं तब हमारे लोग सही हैं।
खैर ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनका जवाब मिलता भी है और नहीं भी मिलता है। हमे बस यही करना है कि किसी रोड पर घूमते भिखारी को कुछ खिलाने से पहले ऐसे लोगों को ढूंढें जिन्हें सचमुच में किसी चीज की जरूरत है। वो भूख भी है कपड़ा भी है और शिक्षा भी है और उससे ज्यादा जरूरत प्यार की है जब कोई आकर एक झपकी दे जाता है। उनके साथ कुछ बोल, बोल जाता है। थोड़ा समय बिता जाता है। कुछ देर के लिए अपनत्व का एहसास करा जाता है कि जहाँ कुछ नहीं वहां जो मिले वही सही।
आज मैने उस चार साल की लड़की में भी वही पाया। उसे कुछ नही चाहिए था उसे कोई प्यार से उठा ले अपने बाहों में भर ले और महंगे नहीं, सिर्फ एक रुपए की टॉफी ही दे दे वो भी उसके मांगने पर। क्योंकि कोई अपने से मांगता है जो उसका खुद का होता है। उसे जो चाहिए वो कम बेसी करके देता ही है।
उसके साथ खेले, माँ वाला स्पर्श मिले चाहे वह प्यार वाला हो या डांट वाला हो। उसके साथ समय बिताये। उसके साथ कलाबाजियां खेले जैसे और बच्चे अपने माँ बाप के साथ खेलते हैं। नहलवायें, कपडे पहनाये, खिलाये बहुत सी चीजे करें। वो जिद कर सकती है लेकिन किसी बाहरी के साथ लिपट नहीं सकती है लिपटी भी तो कितने समय के लिए बस कुछ सेकंड के लिए रात में सोते हुए फिर मन किया तो वो क्या करेगी।? कोई चॉकलेट भी देगा तो क्या देगा अपने मन का ही देगा अब अच्छा लगे या न लगे उसे लेना ही होगा क्योंकि पता नहीं फिर कब मिलेगा।
ऐसे बच्चों का हर कोई फायदा उठाता है। कुछ राज्यों में अनाथालयों के बच्चों के साथ हुए घिनौनी हरकते या उनका उपयोग करने के बारे में जान सुन सके हैं। रोटरी जैसी संस्थाएं ऐसे बच्चों के लिए बहुत से काम कर रही है फिरभी उन्हें जो चीज चाहिए वह चीज समाज के आगे आने पर ही उसकी भरपाई या उसे पूरा किया जा सकता है। खासकर उस बच्चे के समाज के द्वारा। आज भी हम किन्ही कारणों से ऐसे बच्चों स्वीकार नहीं करते हैं। कुछ देना है या मदत करना है वो तो ख़ुशी ख़ुशी कर देते हैं लेकिन जब स्वीकारने की बारी आती है तो कोई न कोई बहन बनाकर पीछे हैट जाते हैं। जबतक हम खुद में और समाज में स्वीकार करने की भावना नहीं आएगी तबतक ऐसे अनाथालय खुलते रहेंगे लेकिन उनके हेतु कभी साध्य नहीं होंगे।
-अजय नायक "वशिष्ठ'
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