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Sunday 21 April 2019

ठेके के जुबानी शेर (लोकसभा चुनाव 2019)



ठेके के जुबानी शेर (लोकसभा चुनाव 2019)



    कुछ भी बोलने वालों की सबसे अच्छी बात यह है की बोलने की शुरुवात अच्छी बातों से करते हैं। चाहे किसी भी विषय पर बोलना क्यों ना हो। राजनीति साफ सुथरी होनी चाहिए, किसी पर व्यक्तिगत हमला नही करना चाहिए। लेकिन ये बातें तो भूमिका और लोंगो के सामने अपने को अच्छा बनाने के लिए होती है। लेकिन बोलते बोलते जैसे जैसे आगे बढ़ते चले जाते हैं,  वैसे ही जोश के साथ अच्छी बाते पीछे छूटती चली जाति है।  और फिर तरकस में से उससे भी अच्छी बाते जो होती है वह निकलती चली  जाती है। जो खानकहाँ से निकलती है और कहाँ खत्म होती है यह ना तो बोलने वाले को ही मालुम होता है और ना ही उन अच्छी बातों को ही मालुम होता है। (अच्छी बातों का द्यर होता है जो बोलने वाला भी जानता है और खुद अच्छी बात भी) लेकिन यहाँ जिसके बारे में बोलते है वह या तो खुद भी नहीं जानता है या जानता भी होगा तो इतनी अंदुरीनी बात होने की वजह से वह अपने परछाई से भी भी छुपाने की कोशिश करता होगा। लेकिन उन बातों को बोलने वाला विरोधी जान जाता हैं।  जानता ही नही हैं उन बातों को  सार्वजनिक स्थलों पर ब्रह्मोस मिसाईल की तरह अचूक निशाना भी लागते हैं अपने विपक्षी पर। और विपक्षी जबतक सोचकर उस लगाए हुए इल्जाम का जवाब देने के बारे में सोचता है तब तक आरोप लगाने वाले, अपने विपक्षी पर दुसरे इल्जामों की बौछार कर देते हैं। सामने वाला हाथ पर हाथ धरा ही रह जाता है। अपनी भलाई में चुप रहने में ही समझता है। क्योंकि उसे भी मालूम होता है कि थोड़ी बहुत तो सच्चाई है! अब लड़ने निकलेंगे तो तो जो छुपा हुआ है उसमे से कुछ ना कुछ तो बाहर निकलेगा।  और एक भी राज की बात निकल गयी तो इज्जत का पंचनामा हो जायेगा। इसलिए वह मैदाने जंग से हटने में ही चतुराई भी समझता है।
      इससे भी मजेवाली बात यह है कि अपने द्वारा लगाये गए आरोपों को सिद्ध करने के लिए भी एकदम तैयार बैठे रहते हैं। भरी सभा में बोलते चले जाते हैं कि जब बोलो तब अपने द्वारा विपक्षी व्यक्ति या पार्टी पर लगाए आरोपों को सिद्ध क्र दें।  उन आरोपों पर बल तब और मिल जाता है जब जिसपर आरोप या आरोपों के तीरों से हमला होता है और वः कुछ नहीं बोलता है।  बोलने की बात छोड़िये वः उनपर किसी भी प्रकार की कार्यवाही करने की धमकी भी नहीं देते है। जिसकी वजह से आरोप लगाने वाले व्यक्ति चुटकियों में अपने द्वारा लगाए गए आरोपों को सिद्ध भी कर देते हैं ।
      यह सब देखकर कभी कभी अपने पुलिसिया प्रशासन पर भी शक होने लगता है की ये कितने निक्कमे लोग हैं, की १०-१० साल से एक ही केश के पीछे पड़े रहते हैं।  फिर भी ना तो किसी केश को हल कर पाते हैं और ना ही कुछ भी सिद्ध कर पाते हैं।  जबकि उनका दिन रात यही काम है। वे इसी के लिए तनख्वाह लेते हैं। उनका गठन इसी काम के लिए किया गया है। और एक हमारे राजनितिक बंधू  हैं इल्जाम भी लगाते हैं और वो भी डंके की चोट पर। साथ में उस लगाये हुए इल्जाम को सिद्ध भी करते हैं डंके की चोट पर। तब यही लगता है कि हमारे सारेर अन्वेषण विभागों को समाप्त करके इन्हें ही अन्वेषण ब्यूरो में भर्ती करके सारे केशों की खोजबीन की जिम्मेदारी दे देनी चाहिए। और अगर इन्हें खुफिया विभाग में भर दिया जाए तो पूरे देश में कहीं भी आतंकवादी हमले नही होंगे। क्योंकि जब यह अपने विरोधी के बारे में खुफिया से खुफिया जानकारी इकट्ठा कर सकते हैं तो आतंकियों से सम्बंधित जानकारी इकट्ठा क्यों नही कर सकते हैं। आखिर देश का और देश भक्ति का जो सवाल है। और ये अपनों आप को देशभक्ति के मामले में सबसे पहले रखते हैं। भले ही जब सीमा पर जा कर लड़ने की बात हो तो बगल की खिड़की में झाकने लगते हों।  और फिर उस खिड़की में खड़े व्यक्ति पर ही इल्जाम लगा देते हों की इन जैसों की वजह से ही हमारे यहां आतंकवादी घटनाये या हमारे सरहद सुरक्षित नहीं है।
     हमारे यह इल्जाम या एक दुसरों पर कीचड़ उछलने वाले राजनितिक व्यक्ति  बरसाती मेढक से भी आगे के निकलते हैं। मेढ़क तो बरसात होने के थोड़े भी आसार होने पर बहार निकलकर तो टर-टर करता है। लेकिन ये चुनाव खत्म होते ही पता ही नहीं कहाँ चले जाते हैं की जबतक इन्हे हरी पत्ती ना दिखे या इनका किसी और तरिके से फायदा ना होता हो तब तक दिखते ही नहीं है। चुनाव खत्म पैसा हजम। क्योंकि इनका भी ठेका, चुनाव तक का ही रहता है। उसके बाद इनके मालिक के हुकुम से कहीं भी चले जाने के लिए कह दिया जाता है। और ये भी गुलाम सेवक की तरह चुनाव खत्म होने के बाद पता नही कहाँ नागा साधुओं की तरह किस गुफा में छुप जाते हैं कि ढूढ़े नहीं मिलते हैं।  एकदम रहस्यमयी किरदार बन जाते हैं। 5 साल के बाद फिर से आनेवाले चुनावी कुम्भ पर ही बाहर निकलते हैं। जोश ए खरोश के साथ एक नए हथियार के साथ।
      इनके आका भी अपनी इस सेना के इस तरह के बर्ताव के लिए कुछ नहीं बोलते है। बहुत सी बातों पर हाय तौबा मचने पर सिर्फ दिखावे के लिए थोड़ी बहुत कार्यवाही कर देते हैं। बस वे अपने पार्टी या मालिक के बारे में कुछ उल्टा सीधा ना बोले। क्योंकि वहाँ सिर्फ कार्यवाही ही नहीं बहुत ही बड़ी सजा सुनाई जाती है। फिर चाहे वह सबसे बड़ा चेला क्यों ना हो। एक झटके में उसे नीचे उतार कर उसकी ऐसी की तैसी कर दिया जाता है। और ऐसी की तैसी करने वाले वही उसके साथी होते हैं जो एक समय उसके साथ मिलकर विरोधी की ऐसी की तैसी किया करते थे। अब सोच लिजिये एक छोटे से प्यादे की क्या हालत करते होंगे। जिसका पहले से ही कोई वजूद ना रहा होगा।
      कुछ भी बोलने में सिर्फ चुनाव के महाराथी ही आगे नही रहते हैं उनके चेले चपाटे भी उतने ही आगे रहते हैं।  आखिर में उन्हें भी तो चुनाव के मैदान में उतरकर अपनी हाजिरी जो लगवानी रहती है।  भले ही भाड़े के हथियार को लेकर ही मैदान में उतरे। ये वैसे होते हैं जैसे क्रिकेट का क,ख,ग भी ना जानने वाले भी किसी बल्लेबाज के आउट होने पर उसे बैटिंग करने का तरिका सिखाने लगते हैं कि बैटिंग या बॉलिंग कैसे करते हैं।
      साहब भले नहीं सुने उनकी लेकिन पीछे रहकर अपने महारथी साहब का मार्गदर्शन भी करते रहते है ये लोग। साहेब ये बोलो साहेब ये करो।  वे अकेले  ही नहीं रहते हैं अपना एक ग्रुप भी बना लेते हैं। और उस ग्रुप के माध्यम से घर, रास्ते, चाय की दूकान, आफिस, सोशल मीडिया, और बसों व ट्रेनों जैसे अनेक जगहों पर बैठकर अपनी बात को सिद्ध करने के लिए सामने वाले विरोधी पर अनर्गल तरह के आरोप प्रत्यारोप करते रहते हैं। उन्हें लगता है की उनकी बाते उनके आकाओं तक तो पहुँच ही रही होगी।  और अगर नहीं भी पहुँच रही होगा तो भी कोई बात नहीं है , अपने साहब के लिए तो इतना हम कर ही सकते हैं। इसलिए वे खुद ही अपनी पीठ ठोककर और जोरों सोरो से सामने वाले व्यक्ति पर कीचड़ उछालना , इल्जाम लगाना जैसे  काम में लग जाते हैं।  चाहे उनकी बातों को कोई सुने या ध्यान ना देता हो।  उसे अहमियत दे या ना दे। बस यही सोचकर अपने काम मे तनमन से लगे रहते हैं कि उपर तक हमारी बाते पहुँच रही होगी। भले ही समाज के प्रबुद्ध मण्डली उन्हें मूर्ख समझती हो। लेकिन ये अपने आप को समाज का सबसे समझदार व्यक्ति समझते हैं। वे सोचते हैं कि वे सजग हैं इसलिए हमारा समाज भी सुरक्षित व विकास कर रहा है। वे नही होते तो समाज का कितना नुकसान हुआ होता ये वे भी नही जानते।
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