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Thursday 5 December 2019

भीड़ ( एक ताकतवर जनमानस छोटी छोटी बातों पर भीड़ बनकर अनियंत्रित होता हुआ )

 भीड़

( एक ताकतवर जनमानस छोटी छोटी बातों पर भीड़ बनकर अनियंत्रित होता हुआ )

    * भीड़ क्या होती है?  कैसी होती है? और क्या क्या कर सकती है? वह सब हमने अभी कुछ रोज पहले साक्षात रूप में देखा। उसी दिन भीड़ के महत्व और उसके दुष्प्रभाव को भी बहुत ही बारिकी से देखा और समझे है। महत्त्व ये की बड़ी से बड़ी संस्था के चूलों को, छड़ भर में हिला सकती है, ये भीड़ । अगर इसे सही दिशा औए नेतृत्त्व मिले। अगर इसे सही दिशा और सही नेतृत्त्व नहीं मिला तो अपनों के साथ साथ खुद का भी सर्वनाश करने में भी पीछे नहीं रहेगी ये भीड़। भले ही आप नेतृत्वकर्ता क्यों ना हो।  अगर आप थोड़ा सा भी उस भीड़ के खिलाफ हुए या उस भीड़ को लगा की, आपका रुख उनके विपरीत जा रहा है तो आप कितने बड़े ही क्यों ना उस भीड़ के हितैषी हो।  वो आपको भी अपने कोप का शिकार होने से नहीं रोक सकते हैं।  फिर सोचिये उन लोंगो का क्या होता होगा जो पहले से ही उनके विपरीत हैं।  जिनकी वजह से यह भीड़ जमा हुयी है। आप इसे शुद्ध भाषा में 'जमा हुआ अपार जनमानस' भी कह सकते हैं। लेकिन हम बार बार इसे भीड़ इसलिए कह रहे हैं कि जमा तो हुए हैं।  लेकिन इसमें से जन है लेकिन मानस गायब होकर सिर्फ भीड़ बची है। हमारे हिसाब से मानस में थोड़ी बहुत समझबूझ होती है। और यह ऐसे जनमानस है जिसे कुछ समय पहले ही पता चलता है की वे आखिर यहाँ क्यों जमा हुए हैं। जहाँ जनमानस नहीं होंगे उस जगह इकट्ठे लोंगो के लिए भीड़ से अच्छा कोई और शब्द नहीं हो सकता हैं। इसलिए हम इसे भीड़ ही कहेंगे। भले ही गलत ही क्यों ना हो।
A Photo by chuttersnap on Unsplash by  google 

     *ऐसे ही एक भीड़ को बहुत समय पहले मुंबई के लालबाग के राजा का दर्शन करते हुए देखा था।  लेकिन उसमे और इस भीड़ में कुछ ज्यादा अंतर तो नहीं था।   लेकिन एक फर्क था। कल की भीड़ को नेतृत्त्व करने वाले बहुत से लोग थे।  और उस भीड़ को नेतृत्वव स्वयं गणपति जी कर रहे थे।  कल की भीड़ में गजब सी शांति थी, शोरगुल के साथ में।  उस दिन के भीड़ में ऐसा कुछ नहीं था।  बस सब भक्ति के अंदर डूबे हुए थे। अंतर् इसलिए जयदा नहीं था की भगदड़ मचते ही वह भी भीड़ कुछ इसी प्रकार हो जाती।  जिसे बस भड़काने की टॉनिक चाहिए था। जैसे ही किसी ने टॉनिक दिया वैसे ही वह भीड़ भी एक दूसरे पर टूट पड़ती।  फिर किसी की गलती है या नहीं आज उन सब की गलती है जो जो उन्हें रोकने के लिए आगे आएगा या उनकी वाली नहीं करेगा या सुनेगा । तहस नहस थोड़े ही देर में। 
     *फिलहाल इस भीड़ के इकट्ठा होने का कारण यह था  कि एक लड़का जो 8 वी कक्षा में पढ़ता था। वो अपने  विद्यालय से छूटने के बाद घर जा रहा था।  कुछ देर बाद पता चला की माल की धुलाई करने वाली कोई बोलेरो पिकप उसके उपर से चढ़ गयी है। और उस लड़के की वहीं जगह पर ही तत्काल मौत हो गयी।  जिसकी वजह से वहां लोंगो की भीड़ धीरे धीरे जमा हो गयी। उसी भीड़ में से ही कुछ लोगो ने तत्परता दिखाते हुए उस बच्चे के माँ-बाप को फोन किये।  तो उसी भीड़ में से किसी ने पुलिस को भी फोन कर दिया।  गाड़ी चलाने वाले चालक को लोंगो ने पकड़कर अच्छे से धुनाई किया।  लेकिन उसी भीड़ में से कुछ की समझदारी की वजह से वे दोनों उतना मार नहीं खाये जितना कि हाल के दिनों में जगह-जगह और अलग-अलग मामलों में इस तरह पकड़ाए लोग मार खाएं हैं।  इनकी किस्मत उनसे बहुत ही अच्छी थी। ऐसा हम बोल सकते हैं। जबकि अक्सर ऐसा होता नहीं  है ऐसे मामलों में। हम तो उन लोंगो को शाम के समय देखे। जब देखे तो एक गहरी साँस लेते हुए बोले की शुक्र है  भगवान का कि ये लोग सही सलामत है।  जबकि भीड़ के उग्र रूप को देखकर लग नहीं रहा था कि इन लोगों के हाथ पैर सही सलामत होंगे। खुद पुलिस वाले को भी विश्वास नहीं था।  अब सही सलामत बच गए ये इनकी किस्मत और भीड़ की दयालुता भी बोल सकते हैं।   
     *पुलिस में रपट और मृत बच्चे देहं को उनके माता-पिता  को सौपने के बाद वह  मृत बच्चा कहीं नजर नहीं आ रहा था।  ना तो रोते बिलखते उनके माता-पिता और सगे संबंधी ही नजर आ रहे थे।  नजर आ रही थी तो बस वह भीड़।  जो तैयार हो गयी थी कुछ भी करने के लिए। बस उन्हें बिना नाम के अपने सरदार के आदेश की जरूरत थी।  पल भर में उस अपघात के बदले में कुछ भी कर गुजरने के लिए।  भले ही उन्हें कुछ समय बाद लगे की उन्होंने भी वही किया जो उस गाड़ी और उस गाड़ी को चलाने वाले ने किया था। उनमे और भीड़ बने लोगों में कोई फर्क नहीं रहा। उल्टे देखा जाए तो उस गाडी वाले की बहुत ही कम गलती निकलेगी भीड़ के आगे ।  लेकिन क्या करें भीड़ को लगा कि यही सही समय है अपनी आवाज को बंद करके ऊपर की कुर्सीं तक पहुंचाने का।  अगर इससे कुछ नुक्सान होता भी है तो कोई बात नहीं।  आखिर कहा भी गया है कि कुछ पाने के लिए तो कुछ खोना पड़ता है।  वहां भी अपना ही खोना है और यहां भी अपना ही नुकसान करना है। और उसी का परिणाम था उस दुर्घटना के बाद का मंजर। वो तो अच्छा हुआ कि वहां कुछ लोंगो कि समझदारी से ऐसा कुछ नहीं हुआ।  और भीड़ को भड़काने वालों की सारी योजना धरी की धरी रह गयी।  
    *लेकिन हर जगह ऐसा नहीं हो रहा है। कुछ दिन पहले सोशल मीडिया में दो वीडियो प्रसारित हुए थे। और एक इंस्पेक्टर को गोली मारने का मामला बहुत चर्चित हुआ था।
   *कुछ दिन पहले एक वीडियो  जिसमे एक खेत के अंदर, कुछ लोग मिलकर, एक लड़के को तब तक मारते हैं जब तक वह मर नहीं जाता है।थे तो कुछ लोग ही , लेकिन हम उन कुछ लोंगो को भी एक भीड़ ही कहेंगे। क्योंकि ऐसे काम भीड़ में से ही कुछ लोग ही करते हैं। चूँकि वहा पूरी भीड़ जमा रहती है।  वे करते कुछ नहीं है लेकिन ना बांए की वजह से वे भी उस क्रियाकलाप में शामिल हो जाते हैं।  भले ही वे बाद में बोले कि हम तो सिर्फ खड़े थे। अगर वे चाहते तो एक बार में ही किसी धार दार चीज से उसे मार सकते थे।  लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं।  लाठी डंडे से उसे तब तक मारते हैं, जब तक वह कहर कहर के मर नहीं जाता है। मारने वाले कुछ ही लोग हैं।  लेकिन वहां उन मारने वालों से ज्यादा लोगों की भीड़ इकट्ठा थी। उस लड़के को वहां इकठ्ठा हुयी पूरी भीड़ मार रही थी। लेकिन उस भीड़ में से किसी को इतनी भी दया नहीं आयी उस मार खाते लड़के पर कि कोई जाकर उन मारने वालों को ये भी नहीं बोलता है कि  मारना ही है तो ऐसे ना मारकर सीधे एकबार में ही किसी धार दार वास्तु से मार दो। ताकि उसके प्राण आसानी से निकल जाए। इस प्रकार से तड़प तड़प से तो अच्छा है एक झटके में ही मर जाए।  लेकिन ऐसे बिलकुल ही मत मारों।  भले ही उसकी कितनी ही बड़ी गलती क्यों  ना हो।
      *दूसरा वीडियो हमारे देश का नहीं था।  फिर भी वह वीडियो भी भीड़ से ही सम्बन्धित ही था। एक लड़की को पहले कुछ लोग मारते हैं।  फिर उसपर पेट्रोल डालकर आग लगा देते हैं।  सबसे बड़ी बात यह है कि उस भीड़ में महिलाएं भी रहती हैं।  यानि एक महिला को जलाने में वे भी पूरी तरह से भागीदार रहती हैं। उन जलने वालों के अलावा वहां भी भीड़ थी। लेकिन कोई भी बचाने के लिए आगे नहीं आता है। 
     *अभी कुछ महीने पहीले एक इंस्पेक्टर की हत्या ऐसे ही एक बेकाबू भीड़ में से एक दो ने कर दिया था।  जबकि वह तो अपनी जिम्मेदारी निभा रहा था। जो उसे सरकार के द्वारा दी गयी थी।  अगर वह उसमे थोड़ी भी कोताही बरतता तो उसकी नौकरी भी जा सकती थी। लेकिन भीड़ को लगा की वह हमारी तरफ से नहीं है बस उसे ही निगल गए।
*दोनों जगहों पर भीड़ जमा थी।  काम को अंजाम देने वाले कुछ ही लोग थे।  लेकिन इसके इतर वहां उन लोंगो के आलावा उनसे दुगने से भी जयदा लोग थे। फिर भी कोई आगे नहीं आता है।  उन दोनों को बचाने के लिए।  या इतना भी नहीं कहता है कि इनकी गलती क्या है। और ये गलती है तो आप जो सजा दे रहे हो क्या आप उसके लिए बने हो।  या ये उस सजा के लायक हैं भी या नहीं हैं।  आप लोग हां या ना में भी बोल सकते हैं।  लेकिन कोई नहीं उनसे पूछता है।
      *कुछ सालों के अखबारों पर नजर डाले तो यह बात सामने निकलकर आती है कि 90 के दशक से ही भीड़ का बेकाबू होना शुरू हो गया था। तब इतने प्रचार प्रसार के माध्यम नहीं थे।  जिसकी वजह से जो खबर अखबार की नजर में पड़ी वो छपती थी।  नहीं तो कितने ही मामले ऐसे ही खुद ही दब जाते थे या दबा दिए जाते थे।  चूँकि आज मिडिया के साथ साथ सोशल मीडिया भी उतनी ही ख़बरों के मामले में जागरूक रहती है।  जिसकी वजह से, जैसे ही उसे समाज मे कुछ अलग घटता हुआ दिखता है। वह प्रचार प्रसार करने में पीछे नहीं हटती है।  जिसकी वजह से आज सारे मामले खुलते जा रहे हैं।  और समझ में आ रहा है की आज भीड़ कितनी बेकाबू हो चुकी है। हम यहाँ पूरा दोष भीड़ को नहीं दे सकते हैं। क्योंकि कोई भी भीड़ ऐसे ही जमा नहीं हो सकती है।  जरुर उनके साथ कुछ अलग हो रहा है।  जिसे वह व्यक्तिगत तो हल या उसका तोड़ नहीं निकाल पा रहे हैं। इसलिए वे अब किसी ना किसी मामलों को अपने मामले से जोड़कर भीड़ के रूप में इकट्ठे हो रहे हैं।  भले ही उनके मामलों पर उसका प्रभाव पड़े या ना पड़े।  वे चाहते हैं कि इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा अपनी ताकत दिखाने और काम करवाने का। इसलिए वे कहीं भी भीड़ किए रूप में इकठ्ठा हो जा रहे हैं।  मौका मिलते ही उग्र होकर अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मा रहे हैं।
    *एक ऐसी ही भीड़ आजादी के समय पर भी थी। उसी भीड़ के बल पर हमने बिना खड़ग और तलवार के आजादी पाई थी। उसमे कितना संयम और शिष्टता थी। महात्मा गाँधीजी या उस समय के कोई भी बड़ा नेता जो बोलता था उससे एक सूत भी इधर उधर का कार्य, लोग नहीं करते थे।  भले ही अंग्रेज सरकार उनके साथ कितनी भी बरबर्ता क्यों ना करे। नमक सत्याग्रह के समय और जालियांवाला बाग के समय अंग्रेजों ने इस निहत्थे भीड़ पर गोलियों और लाठियों की बौछार कर दी थी। लेकिन भीड़ का एक भी व्यक्ति प्रतिकार नही किया । यह गांधीजी के द्वारा नियंत्रित भीड़ थी । 1922 में एक बार गोरखपुर के पास चौरी चौरा में भीड़ का संयम टूटा भी था। और लोगों की भीड़ ने पूरे पुलिस थाने और उसमे के 1 अधिकारी व 21 पुलिस कर्मियों को ज़िंदा जला दिया था। गांधीजी ने तुरन्त कार्यवाही करते हुए पूरा का पूरा आंदोलन ही वहीं समाप्त कर दिया था। जबकि हम आजादी पाने के करीब पहुँच चुके थे। जिसकी वजह से हमे आजादी से कुछ और सालों के लिए महरूम होना पड़ा। और लोग गाँधीजी के इस कदम से एकदम खफा हो गये थे।  लेकिन गांधीजी ने कहा था कि इसके लिए उन्हें जो भी परिणाम भुगतने पड़ेंगे वो भुगत लेंगे लेकिन इस आन्दोलन को आगे ऐसे ही नहीं जारी रखेंगे।
      *गाँधी जी के अंदर ऐसी सोच रही होगी कि हमें ऐसी आजादी नहीं चाहिए। जिसमे आजादी पाने वाली जनता के अंदर संयम और नियंत्रण ना हो। और यही बातें आगे चलकर हमारे सविंधान में भी उल्लेखित की गयी है।  गांधीजी को शायद उसी समय लग गया होगा कि आगे चलकर इस भीड़ को जब जब मौका मिलेगा और सही से मार्गदर्शन करने वाले नही मिलेंगे तब तब यह भीड़ अपना और अपने देश व भविष्य का ही नुकसान करेगी। और देखिये, आज वैसा ही हो रहा है।  हर जगह भीड़ बेकाबू होती चली जा रही है।  हम गाँधी जी के कामों में कितनी भी कमियाँ निकाल सकते हैं।  लेकिन इस बात को मानना ही पड़ेगा कि वे भीड़ के अंधापन को उसी समय भांप लिए थे।  अगर ऐसा नहीं होता तो वे कभी भी असहयोग आंदोलन को सिर्फ एक घटना की वजह से स्थगित नहीं करते। वो भी तब जब वह आन्दोलन अपने चरम पर थी। इससे प्रतीत होता है कि वे भीड़ के प्रति कितने संवेदनशील और दूरदर्शी थे।
    *महात्मा गांधी जी को इस बात का इल्म था की भीड़ को आजादी देने से हमे आजादी तो जल्दी मिल जायेगी।  लेकिन आजादी के बाद इस भीड़ के अंदर अगर यह घर कर गया की भीड़ ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है। तो यह उन जानवरों की तरह हो जाएंगे।  जिन्हें भूख लगने पर, भूख के सिवा कुछ नजर नहीं आता है।  फिर वे किसका शिकार कर रहे हैं । इसका कोई मतलब नहीं रह जाता है। और गांधी जी भी इस बात को शायद भली भाती समझते व जानते थे।  इसलिए उन्होंने भीड़ को कभी उग्र नहीं होने दिया।  भले ही आजादी मिलने में हमे बार बार एक नए सिरे से आंदोलन खड़ा करना क्यों ना पड़ा हो। जिसकी वजह से आजादी मिलने में हमे कुछ और साल क्यों ना लग जाये।
        *आज दुनिया में जहाँ भी लड़ाईयां शरू हैं । वहां अगर ध्यान से देखो तो यही भीड़ नजर आएगी। बस अंतर इतना है की इन्हे कभी धर्म के नाम पर भीड़ बना दिया जाता है तो कभी रोजगार व अन्य कारणों के नाम पर भीड़ बना दिया जाता है।
      *एक ईराक का ही उदाहरण ले लीजिये । अमेरिका ने इराकियों को सबसे पहले वहाँ के तानाशाह बादशाह सद्दाम हुसैन से लड़ने के लिए उकसाया।  वहाँ के लोंगो की एक बहुत बड़ी भीड़ तैयार किया। सद्दाम हुसैन के खात्मे के बाद अमेरिका ने उस भीड़ को वैसे ही छोड़कर बगल हो गया। अब उस भीड़ को नियंत्रित करने वाला कोई नहीं था। इसी का फायदा उठाते हुए वहां पर एक धार्मिक संगठन खड़ा हो गया। उसने उस भीड़ को अल्लाह के नाम पर लड़ने के लिए उकसाया। उस भीड़ को समझाने में सफल हुआ कि पूरी दुनिया हमारे धर्म को खत्म करना चाहती है। इसलिए अपने धर्म को बचाने के लिए हमे लड़ना होगा। चूंकि भीड़ के पास वैसे ही उस समय कोई उद्देश्य नही था। तो उन्हें अपने धर्म को बचाना ही सबसे बड़ा उद्देश्य लगा। और वे उसमे सम्मलित होकर अपने ही देश का सर्वाधिक सर्वनाश करने पर लग गए। इसप्रकार खुद के लोंगो से लड़कर अपनी खुद के लोंगो पर ही सत्ता स्थापित किये।  अब जब वे भी हारे तो वे अब अपने रोजगार के लिए अपनी ही सरकार से लड़ रहे हैं।  यहां लड़ाई का अंत तो हो रहा है।  लेकिन शुरुआत भी हो जा रही है।  इसका कारण है भीड़ का संयम ख़त्म होना। भीड़ का सही उद्देश्य नही होना ।भीड़ के अंदर की शिष्टता का खत्म होना।
       *गाँधी जी भीड़ की कमजोरी और उसकी ताकत को बखूभी जानते थे । इसलिए चौरी चौरा कांड के बाद पुरे भारत मे असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिए थे।  उन्हें लगा होगा की आजादी तो मिल जायेगी लेकिन किसी देश को सुचारु रूप से चलने के लिए वहां के नागरिकों में संयम, शिष्टता और स्वनियंत्रण भी होना चाहिए।  अगर ये तीन चीज उस भीड़ में नहीं होगी तो वे आपस में लड़कर अपनी ही जड़ों को खोखला करते रहेंगे।  और आज सूक्ष्म रूप से देखें तो दुसरे देशों के साथ साथ भारत में भी वही हो रहा है। हर जगह बगावती भीड़ है। एक भीड़ बगावत करके आती है।  तब तक दूसरी भीड़ तैयार हो जाती है बगावत करने के लिए। अगर अपने हक के लिए लड़ाई लडे तो समझ में भी आता है।  लेकिन अब यही भीड़ अपने हक से ज्यदा धर्म व समाज के लिए लड़ रही है।  जिसकी वजह से दो धर्मों व दो समाजों में कटुता बढती ही जा रही है।  और इस भीड़ को नियंत्रित करने वाला कोई नहीं है।  सभी बड़े लोग या उस भीड़ के हिताशी सिर्फ अपना सबकुछ सीधा करने के लिए यह सब करवाते जा रहे हैं।  जब जब उन्हें इसकी जरुरत पड़ती है।
       *इसका सबसे कारण है यह है की उस भीड़ के नेतृत्वकर्ता का तुरंत जन्म लेना है या वह नेतृत्वकर्ता ताक में बैठा रहता है।  ऐसी कुछ घटनाओ के लिए वहां जमा जनमानस को भीड़ में तब्दील करके उसका रुख अपने उद्देश्यों के अनुसार मोड़कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए। उसके मुद्दे व उद्देश्य जैसे ही पुरे हुए वह उस भीड़ को वैसे ही छोड़ देता है।  जैसे तैसे भीड़ को पता चलता है  की हमारे मुद्दे  व उद्देश्य तो पुरे ही नहीं हुए। और वे कुछ करे या समझे तब तक एक दूसरा नेतृत्वकर्ता खड़ा हो जाता है।  उनका नेतृत्व व उनके उदेश्यों को पूरा करने के लिए।  अब वही भीड़ अपने मुद्दे के चक्कर में उस दूसरे नेतृत्व के पास चली जाती है। ऐसे ही होते रहता है।  भीड़ टूटती है और फिर से बनती चली जाती है।  लेकिन कोइ भी उस भीड़ के किसी भी मामले का  हल नहीं करता है।  और धीरे धीरे यही भीड़ अपनों के खिलाफ होती चली  जाती है।
       *जिस भी भीड़ का उद्देश्य नहीं होगा वह भीड़ ऐसे ही बर्बरता करती रहेगी और खुद का ही इसी प्रकार से नुकसान करती रहेगी। अगर इस भीड़ को फिर से आजादी के समय का भीड़ या कहें तो किसी एक मकसद के लिए किसी एक प्रबुद्ध व्यक्ति के कहने पर इकट्ठी हुयी अपार जनमानस बनाना है।  तो सबसे पहले इनके उद्देश्यों को पूरा करना होगा।  इनकी आजादी के समय इनके दादाओं और परदादाओं के द्वारा देखे गए सपनो और मन में पाले गए आशाओं  को उनकी आँखों के सामने ही ऐसे धूमिल नहीं होने देना होगा।  क्योंकि ये आशाएं और सपने आज की नहीं है।  आजादी के समय की है। जिसे पाने के लिए लोगो ने अपने घर द्वार सब को छोड़कर अपने प्राणो  की आहुति दे दिए। आज यही सपने और आशाएं उनके पुरे नही हो रहे हैं।  वे ऐसा महसूस कर रहे हैं की हैं तो अपने घर में ही।  लेकिन जिनके ऊपर विश्वास करके अपना सबकुछ सौप दिए।  वे ही अब हमे पराये करते जा रहे हैं। यही वह कारण है जिसकी वजह से वह इकठ्ठा होते हैं या हो रहे हैं एक जनमानस के रूप में। वे यहाँ भी एकत्रित होकर फंस जाते हैं। और बिचौलिए बिच में ही आकर उनकी सरलता का सौदा करके उन्हें भीड़ तब्दील कर देते हैं या आप बोल सकते हैं कि उन्हें भीड़ बना दिया जाता है।
       *अगर हमे अपने जनमानस को भीड़ बनने से बचाना है! तो इसके लिए हमारे समाज समाज के बिच में से ही कुछ अच्छे लोंगो को ही आगे आना  होगा। बिना उनके इस बनती हुयी उग्र भीड़ को भीड़ बनने से नहीं रोक सकते हैं। शासन को भी उनकी इच्छा और अपेक्षाओं को पूरा करना होगा।  भीड़ को विशवास दिलाना होगा कि हम आप के लिए हैं। और जरूर आने वाले कुछ समय में आपकी समय समय पर आने वाली समस्याओं को समझा भी जाएगा और सुलझाया भी जाएगा। इस प्रकार से भीड़ को संयम वाली भीड़ बनाने का बीड़ा उठाना होगा।  जैसे आजादी के समय की भीड़ थी।  गोलिया और लाठियां खाने के बाद भी पलट के तुरंत कभी जवाब नहीं दिए।  चौरी चौरा की घटना को छोड़कर। जबकि इतनी जनमानस उस समय भीड़ के रूप में इकट्ठी होती थी कि अगर चाह देते तो अंग्रेजी हुकूमत को कभी का भारत की धरती को छोड़ जाना पड़ा होता।  लेकिन ऐसा कभी नहीं किया भले ही लाठियां और गोलियां खुद के देश की धरती पर ही कुछ मुट्ठी भर के लोंगो के द्वारा खायी थी। उलटे वे उन्हें बोले कि और जितना मार सकते हो मार लो फिर आपको मौका मिले या ना मिले।  आज जरूरत है हमे फिर से उस प्रकार की भीड़ बनने की या बनाने की जरूरत है।  क्योंकि यह भीड़ जो भी चीज हासिल करेगी वह लमबे समय तक के लिए हासिल करेगी। और आज हमारा लोकतंत्र  जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बना हुआ है उसकी मूल वजह यही है।  और आजतक इसी विरासत पर टिका हुआ है।
                                                                                            - ब्लॉगर अजय नायक
                                                                                            -www.nayaksblog.com


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