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Monday 14 September 2020

हिंदी की यात्रा

हिंदी की यात्रा 





कहते हैं कि हिंदी भारत के माथे की बिंदी है। एक तरह से यह पूर्ण रूप से सच भी है।  अगर एक तरफ से हिंदी की पूरी यात्रा को देंखें और दूसरी तरफ से अन्य  भारतीय भाषाओँ की पूरी यात्रा को देखने के बाद यह पूर्ण सिद्ध होता है कि हिंदी ही भारत माँ के माथे पर शोभयान होने के लिए बनी थी। इसके बिना तो भारत माँ का श्रृंगार पूरा ही नहीं होता।  इसलिए तो यह किसी क्षेत्र की आधिकारिक भाषा यानि आम बोल भाषा न होने के बाद भी दो अलग अलग भाषी लोंगो के बिच सेतु का काम किया। 

आजादी से लेकर आजतक भारत के विकास में जितना हिंदी का योगदान रहा है शायद ही उतना किसी और क्षेत्रीय भाषा का योगदान रहा होगा। इसका मतलब यह नहीं है कि उन भाषाओँ का कुछ भी योगदान नहीं रहा है।  उनका भी योगदान उतना ही है जितना हिंदी का है।  लेकिन जब राज्य की सीमाओं से बाहर निकले तो  राष्ट्र को  में में पिरोरने वाली एक ही भाषा थी और वह भाषा थी हिंदी।  इसका सबसे कारण है इसके अंदर  वाली सरलता और  लचकता।  जो किसी और भाषा में  इतनी ज्यादा शायद ही पायी जाती हो।  जिसकी वजह से इसे किसी के साथ भी बैठा दो यह कुछ ही समय में अपने को थोड़ा थोड़ा बदलते हुए उसे अपने अंदर सम्माहित कर लेती है।  जिसकी वजह से उसका भी मान रह जाता है और यह खुद को भाषायी दौड़ के रेस में बनाये रखने में पूर्ण रूप से कामयाब भी रहती है। अपना कुछ भी नुकसान किये बिना।  वो भी अपने मूल को बचाते हुए।  आज के अंग्रेजी और स्मार्ट के  दौर में अपने मुल को बचाने के बारे में छोड़िये उनके सामने  टिके रहना ही बहुत बड़ी बात है। यही इसकी एक सबसे बड़ी खासियत ही इसे अन्य सभी भाषाओँ से अलग बनाती है। यह बोलने में सरलत तो है ही।  लिखने में भी उतनी ही सरल है। यह एक ऐसी भाषा है जिसे जिस रूप में बोला जाता है उसी रूप में लिखा भी जाता है।  जिसकी वजह से लोंगो के दिलों आसानी से पैठ बना लेने में कामयाब हो जाती है।  

आपको पता है अंग्रेजों के समय में यानी जब भारत गुलाम था तब हमारे देश की दूसरी कामकाज की भाषा उर्दू थी। उर्दू अंग्रेजी के बाद सबसे ज्यादा मान रखने वाली भाषा थी। क्योंकि भारत पर अंग्रेजों से पहले अरब से आये मुस्लिम शासकों का लगभग ४०० साल तक राज था।  और उन्होंने ने अपनी आधिकारिक भाषा उर्दू को ही घोषित करके रखी थी।  जिसकी वजह से यहां की उर्दू ही सरकारी भाषा थी जो अंग्रेजों के शासन काल तक चलती रही।  लेकिन समय के साथ उर्दू भाषा ने इस्लाम धर्म  का चददर धीरे धीरे ओढ़ते चली गयी। और आम जनमानस से दूर होती चली गयी।  क्योंकि यहां के और धर्मों को लगने लगा क्या खुद उर्दू ने भी कहीं न कहीं यह एहसास दिलाया की मैं सिर्फ एक धर्म विशेष की हूँ। 

उर्दू के आधिकारिक भाषा होने की वजह से हिंदी का कोई बहुत ज्यादा अस्तित्त्व था ही नहीं।  बस यह किताबों तक ही सिमित होकर रह गयी थी।  जिसकी वजह से हिंदी कभी भारतीय भाषाओँ के बीच में अग्रणी बनने के किसी भी रेष में थी ही नहीं।  आज भी आप देखेंगे तो बस हिंदी भाषा ऐसे ही चल रही है।  उसमें आगे बढ़ने या खुद को दूसरे से बड़ा बनाने का कोई ख़्वाब नहीं है।  बस चलती जा रही है जैसे उसे पता चल गया हो कि रुक कर बड़ा दिखाने से अच्छा है खुद को कभी किसी यात्रा पर रुकने न देना है।  जितनी भी ताकत है जितनी भी आपके अंदर ऊर्जा है उन सब का उपयोग करते हुए अपने पथ पर लगातर चलते रहना चाहिए भले ही आपकी वह गति माध्यम गति ज्यों न हो।  हिंदी ने भी इसी का अनुसरण किया और अपने पथ पर लगातार चलती रही।  इसके कई फायदे हैं।  आप जिस रस्ते से या या मोड़ से गुजरते हैं उन रास्तों और मोड़ के बारे में कुछ नया पन मिलता है।  नई जानकारियाँ मिलती रहती है जो आपके आगे यात्रा में बहुत काम आते हैं । इससे आपको  कुछ न कुछ सिखने को मिलता है। जो बताते रहते हैं कि अगर हमे ध्यान रखकर चलोगे तो हम कभी आपका साथ नहीं छोड़ेंगे।  बस हिंदी अपने सफर में  आये इन्ही मोड़ों को और रास्तों को सम्मान देती हुयी चलती चली जाती है।  तभी तो आजादी से पहले से लेकर आजतलक अपने आपको अंग्रेजी के सामने जो कि एक अंतरराष्ट्रीय भाषा है और बहुत से क्षेत्रीय भाषाओं के विरोध के बीच में जो हिंदी के वर्चस्व को बिल्कुल ही तैयार नहीं थे फिर भी भारत की पहली आवाज बनी हुयी है। यह दिखाता है कि हिंदी कितनी संयमित भाषा है। और इसका संयमित होना ही इसकी सफलता का राज भी है। 

हिंदी और अन्य भारतीय भाषा जैसे पंजाबी, मराठी, गुजराती, सिंधी, उड़िया, तथा बंगाली पर आधारित पहली पुस्तक जान बीम्स रचित 'भारतीय आर्यभाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण' है।  जो सन १८७२ में  छपी थी।  यह कुल ३ भागों में छपी थी।  पहला भाग १८७२ में ही 'ध्वनि' शीर्षक के नाम से छपी थी।  इसका दुसरा भाग १८७५ में 'सर्वनाम' शीर्षक और १८७९ में 'क्रिया' शीर्षक के नाम से छपी थी। उसके बाद १८७६ में ईसाई मिशनरी केलॉग का ' हिंदी भाषा का व्याकरण ' प्रकाशित हुआ था। बीम्स के ही समकालीन विद्वान रुडल्फ हार्नली का १८८० में ' पूर्वी हिंदी का व्याकरण ' प्रकाशित हुआ था।  जिसमे आधुनिक बिहारी और अवधी भाषा को जोड़कर हार्नली ने  ' पूर्वी हिंदी व्याकरण ' लाये थे।  इस प्रकार से हिंदी का सफर व्याकरण पुस्तक के माध्यम से लोगो के पास पहुंचने के सफर पर हिंदी निकली।  इसे वैश्विक पहचान भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटलबिहारी वाजपेयी जी को जाता है।  जब १९७७ में उन्होंने सयुक्त राष्ट्र की महासभा में पहली बार हिंदी में सम्बोधन दिया था। और अपनी तेजस्वमयी वाणी से हिंदी का पूर्ण परिचय करवाया था। और हिंदी इस प्रकार से निरंतर आज भी चल रही है। 

हिंदी  प्रचार प्रसार में जितना हिंदी बोलने वालों का योगदान है उससे ज्यादा योगदान खुद हिंदी का भी है। जब दो अलग अलग भाषी लोगो को एक भाषा के माला में जोड़ने की बारी आयी तो सबसे आगे यही अपनी हिंदी ही थी। और आगे चलकर गुलाम भारत के आजादी की आवाज बनी यह भाषा। उसका सबसे बड़ा कारण था इसकी  सरल होना।  जो अपने आप को हर परिस्थिति में आसानी से ढाल लेने में बिलकुल ही संकोच न करना।  भले उससे उसका कुछ नुक्सान क्यों ना होता हो।  इसी का  परिणाम है जो आज हिंदी में  भाषाओँ के के शब्द पाए जाते हैं।  साथ में हिंदी ने अपने अंदर  इंग्लिश को  देकर एक नई भाषा हिंगलिश का भी विस्तार कर दिया है। यह खूबी  किसी और भी भाषा में इस तरह से नहीं पायी जाती है।  हिंदी की सबसे बड़ी खासियत है वह तुरंत आपको स्वीकार  कर लेती है वो भी बिना किसी प्रकार से आपको और आपके भाषा को नुकसान  पहुंचाए हुए। साथ में खुद को भी आपके कदमो में तन मन से समर्पित कर देती है ताकि आपको कभी उसके  थोड़ा भी एहसास न हो। हिंदी का यही गुण हर किसी को उसके प्रति बहुत जल्दी सम्मोहित कर लेता है। इसलिए तो वह आज विश्व में सबसे ज्यादा लोगो की तरफ से बोले जाने वाली भाषाओँ में से एक है।  वो भी इतने विरोध और रुकावटों के बावजूद। 

आप सभी को हिंदी दिवस की हार्दिक बधाई।  अगर आपको हिंदी को जानना है तो एक बार उसे आत्मसात करके देखिये।  वह आपको कभी पराये होने का एहसास नहीं होने देगी।  साथ में आपको आपकी मूल भाषा के जड़ से दूर भी नहीं होने देगी।  यही इसकी सबसे बड़ी खासियत है। 








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