कलम की चुभती सत्य बातें
मन क्षुब्ध सा हो गया
दिल आज बैठ सा गया
कुछ शब्द ही लिखे थे कि
लिखते लिखते आज
कलम ही रूठ गया।
दिल आज बैठ सा गया
कुछ शब्द ही लिखे थे कि
लिखते लिखते आज
कलम ही रूठ गया।
हम बोले अपने कलम से,
मन तो मेरा क्षुब्ध हुआ
दिल तो मेरा बैठ गया
फिर बता मेरे प्यारे बावले
तुझे अचानक क्या हो गया?
मन तो मेरा क्षुब्ध हुआ
दिल तो मेरा बैठ गया
फिर बता मेरे प्यारे बावले
तुझे अचानक क्या हो गया?
पहले तो उसने कुछ नही बोला
कुछ देर मौन धारण करके बैठ गया
फिर शायद उसे कुछ एहसास हुआ
क्यों न इस इंसान को दिया जाए जवाब!
कुछ देर मौन धारण करके बैठ गया
फिर शायद उसे कुछ एहसास हुआ
क्यों न इस इंसान को दिया जाए जवाब!
इससे अच्छा मौका शायद फिर न मिलेगा
इससे अच्छा जवाब देना फिर न बनेगा
आज हाथ आया है एक चौका मौका
इससे अच्छा पकड़ फिर न मिलेगा।
इतनी सी बात सोचते ही
उसके कलमरूपी दिमाग ने
फटा फट लिखते हुए बोलने लगा ........
तुम लोग सचमुच के महान इंसान हो
तुम्हारी जैसी बुद्धि नहीं किसी के पास
इसलिए तो सृष्टि में सबसे बुद्धिमान प्राणी हो।
उसके कलमरूपी दिमाग ने
फटा फट लिखते हुए बोलने लगा ........
तुम लोग सचमुच के महान इंसान हो
तुम्हारी जैसी बुद्धि नहीं किसी के पास
इसलिए तो सृष्टि में सबसे बुद्धिमान प्राणी हो।
जैसा समय, जैसी जगह देखते हो
जैसे लोग, जैसा काम देखते हो
वैसे ही एक ही अक्षर शब्द के,
आसानी से लगा लेते हो अर्थ अनेकों।
तुम जो बोलते हो वही लिखता हूँ
पर मैं भी खूब सब समझता हूँ
तुम सोचते कुछ और हो
लिखवाते कुछ और हो।
हमने बोला...................................
अरे पगले, अरे बावले,
यह कैसी बहकी बहकी बातें कर रहा
हमे तो कुछ समझ में नही आ रहा ।
यह कैसी बहकी बहकी बातें कर रहा
हमे तो कुछ समझ में नही आ रहा ।
वह आगे बढ़ते हुए बोला
जब चाहे तब बदल जाते हो
फंसते ही पतली गली से निकल जाते हो।
खुद ही, खुद के शब्दों का निर्माण करते हो
समय पर खुद ही निर्णय लेकर पलट जाते हो।
जब चाहे तब बदल जाते हो
फंसते ही पतली गली से निकल जाते हो।
खुद ही, खुद के शब्दों का निर्माण करते हो
समय पर खुद ही निर्णय लेकर पलट जाते हो।
अब धीरे धीरे उसकी बातें समझ आ रही थी
दिमाग की बत्ती धीरे से ही सही, जल रही थी।
सारी तस्वीरे खुद ब खुद साफ़ जो हो रहे थे
कलम की जगह अब हम जो सोच रहे थे।
दिमाग की बत्ती धीरे से ही सही, जल रही थी।
सारी तस्वीरे खुद ब खुद साफ़ जो हो रहे थे
कलम की जगह अब हम जो सोच रहे थे।
सही तो कह रहा है आज कलम
सब कुछ तो अपने ही मुताबिक हैं करते।
हम कभी गलत होने पर भी,
सब कुछ तो अपने ही मुताबिक हैं करते।
हम कभी गलत होने पर भी,
कहाँ किसी की बात हैं मानते।
हम खुद के ही शब्दों का जाल बुनकर
बना लेते हैं उसे ही अपना ढाल।
बना लेते हैं उसे ही अपना ढाल।
हमे जहाँ जैसा भी मिलता है मौक़ा
अपने पराये, मूक बधिर सब भूलकर
उसपर कर देते हैं पीठ पीछे से वार।
हम तो इतने जालिम हो गए
हम तो इतने खूंखार हो गए
जिनका नाम ही पड़ा जानवर
वे भी नामरूप जानवर नहीं हो पाए
हम कुछ नहीं आगा पीछा हैं देखते
बस उस समय अपनी फितरत हैं दिखाते
भूल बैठते हैं अपना वर्तमान भविष्य
उसी के चक्कर में बिगाड़ बैठते हैं
अपने साथ साथ दूसरों का वर्त्तमान भविष्य।
-BLOGGER अjay नायक
www.nayaksblog.com
Awesome sir it's great
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