सपनो की उड़ान
यह बात जनवरी 1990 की है, जब पुरे उत्तर भारत में कड़ाके की ठंड पड़ती है। और शीतलहर का प्रकोप अपने उच्च स्थान पर होता है! और फिर वहीं से कुहरे का प्रकोप कम होते चले जाता है। जैसे-जैसे शीतलहर का प्रकोप कम होते चले जा रहां था वैसे ही बिहार के एक छोटे से गाँव के, सबसे निचले तबके के, समाज के लोगो की धुंधली सी जिंदगी भी अँधेरे से निकलकर उजाले की ओर कदम बढ़ाने के लिए, एक ऐतिहासिक करवट लेने जा रही थी। आज के दिन वह गाँव और उस गाँव में रहने वाले लोग पुरे भारत ही नहीं, अपितु पूरी दुनिया को यह बताने के लिए आगे आने वाले थे कि "अगर कोई सपना देखा जाए और सिद्द्त से उसे पूरा करने के लिए उस पर भीड़ जाएँ तो, उस सपने को पंख लग जाता है, और फिर वह सपना, सपना नहीं रहता एक हकीकत बन जाता है।" जैसे बहुत साल पहले हमारे भारत के महान वैज्ञानिक व पूर्व राष्ट्रपति भारतरत्न डॉ. कलाम साहेब ने रामेश्वरम सी छोटी जगह में देखा था।
उस गाँव में खुशियाँ लाने वाला था, उसी गाँव का लड़का, जिसका नाम मनोज था। उसके लिए आज का दिन बहुत ही ख़ुशी का दिन बनकर आने वाला था । और उसके लिए ही नहीं, अपितु पुरे गांव वालों की जिंदगी का सबसे बड़ा और ख़ुशी का दिन आने वाल था। ख़ुशी का दिन इसलिए कि मनोज ने जो सपने अपने बचपन में देखे थे, आज वह हकीकत में बदलने वाला था। जिसके लिए उसने दिन रात एक कर दिया था। आज वह अपने सपने की उड़ान को, पंख लगाकार हकीकत में बदलकर पुरे भारत ही नहीं पुरे विश्व को अवगत कराने वाला था कि, सपने भी सच होते हैं!बस उस सपने को पंख लगाने के लिए सबसे पहले खुद पर विश्वास और उसे पूरा करने के लिए उतनी ही शिद्द्त से कड़ी मेहनत करने की जरूरत पड़ती है। और उसने यही किया था, जिससे उसके सपने हकीकत में बदल गए थे।
आज वह भारत की सबसे बड़ी परीक्षा को जो पास करने वाला था। और पुरे भारत के लिए एक नई मशाल जलाने वाले था कि अगर आप में हिम्मत, माद्दा और कुछ कर गुजरने का हौसला हो तो आपको कोई भी आगे आने से रोक नहीं सकता है। भले ही आपके पास उसे पाने के लिए संसाधन के नाम पर नाम मात्र की कोई चीज या कुछ भी न हो। और मनोज के घर पर संसाधन की बात तो छोड़िये दो वक्त की रोटी के भी लाले थे। मनोज का परिवार कैसे अपना पेट भरता था, यह सिर्फ उनका परिवार जनता था। और जान भी वही सकता था। क्योंकि हम बाहरी दुनिया को देखकर खुश रहने वाले लोग जो हैं।
दोपहर का समय था। मनोज हमेशा की तरह उस दिन भी अपने पिताजी और चाचाजी के काम में हाथ बटाने के लिए गाँव के ही एक बड़े जमींदार के खेत में पहुँच गया था। वह कॉलेज की छुट्टियों में या जब भी शहर से घर आता था तो घर नहीं बैठता था। आज भी वह घर आया और तुरंत माँ से पूछकर कि पिताजी और चाचाजी कहाँ काम कर रहे हैं। और उनके साथ काम करने के लिए चला आया था। उसे काम करते हुए देखकर थोड़ा भी नहीं लग रहा था कि वह किसी इलाहाबाद जैसे बड़े विश्वविद्यालय से विज्ञानं विभाग से पोस्ट ग्रेजुएट किया हुआ लड़का है। जिसने पुरे विश्वविद्यालय के अपने ही विषय के विभाग में ही नहीं अपितु पुरे विश्वविद्यालय में प्रथम आया हुआ लड़का है। और तो और उसने अभी कुछ महीने पहले ही भारत की सबसे बड़ी सिविल परीक्षा यानि संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा को देकर आया हुआ है। एक सामान्य मजदुर की तरह ही वह जब भी घर आता था अपने परिवार के साथ इसी तरह से मजदूरी करने लगता था। परिवार के सदस्य उसे हमेशा टोकते रोकते रहते थे, लेकिन वह कभी नहीं मानता था। और भीड़ जाता था अपने परिवार के साथ दो वक्त की रोटी कमाने में। मनोज वहां भी तो काम ही करके अपने पढ़ाई का खर्चा निकालता था। उसके परिवार की माली हालत इतनी खराब थी की वे दो वक्त के लिए रोटी की भी व्यवस्था कर ले उतना ही बहुत था। तो कहाँ मनोज को इतने बड़े शहर में पढ़ने का सपना भी देख सकते थे।
"तभी मनोज के पिताजी बोलते हैं।"
"मनोज अब तू घर जा, इतना पढ़े लिखे लोगो के लिए यह काम नहीं है।"
तभी वहीं पास में खड़े मनोज के चाचाजी भी बड़े भाई की बात से सहमति जताते हुए बोलते हैं कि "बाबू, भईया सही बोल रहे हैं तू घर जा, अब यह तुम्हारे लायक काम नहीं रहा।" लोग क्या बोलेंगे कि अपने बच्चे को इतना पढ़ा लिखकर उससे मजदूरी करवा रहे हैं। यह काम हम जैसे लोंगो के लिए है तुम्हारे शहरी शरीर के लिए नहीं है। इतने दिन शहर में रहने से तुम्हारा शरीर सुकुंआर हो गया होगा? इसलिए बाबू हमारी बात मानकर घर पर चले जाओ।
तभी मनोज अपने चाचाजी की बात को बिच में ही काटते हुए बोलता है कि,
चाचा मैं अब भी वैसा ही हूँ जैसा पहले था, मुझे शहर की हवा बिल्कुल ही नहीं लगी हुयी है। अगर विश्वास नहीं हो तो, आज शाम तक अपने साथ काम करते हुए देख लीजियेगा। और आज ही नहीं कल, परसों जबतक रहूँगा घर पर, तबतलक मुझे काम करते हुए ऐसे ही देखेंगे। यह शरीर आप लोंगो के द्वारा सींच कर बनाया गया है। भगवान की बनावट में थोड़ी बहुत गड़बड़ी हो सकती है लेकिन, आपकी मेहनत में एक नया भी गड़बड़ी नहीं हो सकती है मेरे प्यारे चाचाजी ! और मनोज अपने चाचाजी को प्यार से पकड़ लेता है।
तभी दोनों भाई मनोज की बात पर मुस्करा देते हैं और एक दूसरे को देखते हुए इशारों इशारों में यही बोलते हैं कि हमार बच्चा शहर जाने के बाद, और इतना पढ़ने लिखने के बाद भी नहीं बदला। आज उन्हें अपने खून पर गर्व हो रहा था की देने के लिए तो उनके पास कुछ नहीं था फिर भी हमने अपने बच्चे को जो भी रूखा सूखा दिया, उसने उसे भी सहज रूप से आशीर्वाद समझकर स्वीकार कर लिया। एक गरीब माँ बाप के लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती थी कि, उनके लड़के के मन में गरीब होने और उनके माँ बाप के द्वारा कुछ भी न दे पाने का टंच भर का भी अफ़सोस नहीं था। उल्टे उसे जो उनसे मिला, उसे ही अपना नसीब समझकर सर माथे पर लगाकर उसमे ही बढ़ोत्तरी करने के प्रयत्न में लग गया। जिसका फल हम आज देख रहे हैं कि एक गरीब मजदुर का लड़का उनके गांव ही नहीं उनके पुरे समाज में सबसे ज्यादा पढ़ाई करने वाला लड़का है। इसमें पंडित दीनदयाल पाठक जी का सबसे बड़ा हाथ और योगदान है। अगर उन्होंने मनोज को सहारा नहीं दिया होता तो, आज मनोज हमारी तरह ही इन्ही खेतों में मजदूरी कर रहा होता।
पड़ोस के गाँव के रहने वाले मास्टर दीनदयाल पाठक जी, अपने ही गाँव के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक और फिर वहीँ पर पदोन्नति पा कर मुख्याध्यपक बन गए थे। यह उन दिनों की बात है जब मनोज के पिताजी मास्टर जी के यहां हरवाही ( खेत जोतने का काम ) करते थे। तो कभी कभी मनोज उनके साथ चला जाता था। एक ही लड़का था तो वे मना भी नहीं कर पाते थे। और सुबह जाते ही उनके घर जो बना होता था वह मनोज के पिताजी को भी खाने के लिए मिलता था। ठीक उसीप्रकार से दोपहर का भोजन भी। तो सोचते थे कि घर पर रुखा सूखा खायेगा और एक दिन तो मेरे साथ चलेगा तो कुछ अच्छा सा खा लेगा। कहने मतलब यही है कि मनोज के साथ साथ उनका मन करता था उसे ले जाने का। अब रोज तो नहीं ले जा सकते थे लेकिन दो चार दिन में जब भी मनोज बोलता था तो उसे मना भी नहीं करते थे। और तुरंत उसे ले चल पड़ते थे।
ऐसे ही एक दिन मनोज को मास्टर जी के यहां बाहर रखी हुयी किताबों को बड़े ध्यान से देखते हुए पंडित जी ने देखा। अच्छा यह कोई पहली बार नहीं हुआ था। वह जब भी अपने पिताजी के साथ पंडितजी के यहां आता जाता था, तो उन किताबों के बगल ही ज्यादा रहता था। दीनदयाल जी ऐसे ही हर बार देखा करते, फिर उस बात को वहीँ छोड़ देते थे। लेकिन उस दिन भी जब मनोज उनके घर आया तो मास्टर जी ने देखा कि मनोज आते ही कहीं नहीं गया, सबसे पहले उन रखी हुयी किताबों के पास गया। तो आज मास्टर जी ने ऐसे ही बातों में ही उससे पूछ लिया।
क्या रे, मनोजवा तुझे किताबे देखना अच्छा लगता है क्या? यह किताब पढ़ेगा। पहले तो मनोज डर के मारे कुछ नहीं बोलता है। लेकिन मास्टर जी के द्वारा उनका हाथ उसके सर पर फेरते ही जैसे उसे थोड़ी सी हिम्मत सी आ गयी। और उसने अपना सर हिलाते हुए हामी भर दी।
तभी मास्टर जी बोलते हैं। ,
"इसके लिए तुझे रोज विद्यालय आना होगा।" "अगर रोज विद्यालय आने का वादा करेगा, तो तुझे ये ही नहीं, और भी किताबे पढ़ने के लिए दूंगा।" बोल मंजूर है तो इस बार मुंडी हिलाकर नहीं भगवान ने जो जुबान दिया है उससे बोल। और फिर मनोज ने भी बोलने में देरी नहीं कि जैसे सरस्वती माँ इसी दिन के इंतज़ार में उसके जिव्हा पर बैठी थी। तुरंत मनोज हाँ बोल दिया कि, पंडितजी मैं रोज आऊंगा।
पंडितजी ने तुरंत मनोज के पिताजी को खेत पर से संदेशा देकर बुलवाते हैं। मनोज के पिता को चिंता हो जाती है कि ऐसा क्या हो गया कि पंडितजी ने अचानक बुला लिया है। कहीं बाबू ने तो कुछ गलत सलत तो नहीं कर दिया है। वह अभी छोटा और अबोध है. उसे कहाँ पता है कि हम उनके नौकर हैं। और ऊपर से उनके बराबरी के भी नहीं हैं। ऊपर से वे ठहरे पंडित जी। यही सब सोचते हुए वह लम्बे-लम्बे पैरों से कदम बढ़ाते हुए घर की तरफ चल देता है।
जैसे ही वह घर पहुंचता है पंडितजी तुरंत उसकी और मुखातिब होकर बोलते हैं कि सुन आज से तेरा और तेरे घरवाली का एक और काम है, तुम दोनों को इसे रोज तैयार करके विद्यालय तक छोड़ आना है। और जिस दिन छुट्टी रहेगी उस दिन अपने साथ मेरे घर लाना है। तुम्हारी हरवाही भी इसके विद्यालय जाने पर ही हमारे यहां रहेगी। बोल मंजूर है ! अब मनोज के पिताजी इतने बड़े नहीं थे कि वे कुछ भी सवाल जवाब कर पाते। उन्होंने तुरंत बोल दिया कि पंडितजी आप जैसा चाहते हैं वैसा ही मैं करूंगा। और फिर इस प्रकार से मनोज के आज के दिन का सुनहरा इतिहास लिखने का सफर शुरू हुआ। जिसे आज लिखकर उसने खत्म किया।
तभी उनके कानो में एक आवाज पड़ती है, मनोज, मनोज। और वे तीनों पीछे मुड़कर देखते हैं कि एक वृद्ध समान व्यक्ति उनकी तरफ दौड़े दौड़े चला आ रहा है। साथ में उनके पीछे पीछे कुछ औरतें और आदमी भी दौड़ते भागते चले आ रहे हैं। ध्यान से देखने पर वे मनोज के मास्टर पंडित दीनदयाल पाठक जी थे। जो बिना चप्पलों के ही 70 साल की उम्र में भी एक तुर्क युवा की तरह दौड़े दौड़े चले आ रहे थे। साथ में आज उनकी आवाज में भी एक जोशीले युवा की तरह जोश था। जोश क्या उस आवाज में इतना दम था कि आज के युवा भी उस तरह से नहीं बोल सकते थे।
ये सोच ही रहे थे कि तबतलक वे उनके पास आ गए और जोर से सांस लेते हुए एक ही साँस में मनोज की तरफ अपना मुंख करते हुए बोलते हैं कि मनोज तुमने संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास कर ली है। तुम्हारा पुरे भारत में दसंवा स्थान आया है। और यही नहीं अपने कैटगरी में तुमने पुरे भारत में पहला स्थान प्राप्त किया है। यही बोलते बोलते वे बैठ जाते हैं और उनकी आँख से आंसू की धारा बहने लगती है। इधर मनोज भी उन्हें पकड़कर अश्रुओं की धरा को निकालते हुए गुरूजी को पकड़कर जमीन पर बैठ जाता है। दूसरी तरफ मनोज के पिताजी और चाचा को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि, यह हो क्या रहा है ! तबतक मनोज की माँ भी आ जाती है।
मनोज के पिताजी उससे ही पूछते हैं कि "मनोज की माई यह सब क्या है, गुरूजी और मनोज एक दूसरे को पकड़कर क्यों रो रहे हैं ? तुझे कुछ पता है तो हमे भी बता ? मनोज के चाचा भी वही बात बोलते हैं कि "भौजी क्या हुआ है? जो आप लोग भागते भागते खेत तक आ गए हो। बात क्या हुयी है ? कुछ हो गया है क्या ? इस प्रकार से मनोज की माँ पर दोनों भाई प्रश्नो की बौछार कर देते हैं।
तभी मनोज अपने आसुंओं को पोछते हुए बताता है कि " पिताजी और चाचाजी मैंने अपने देश भारत की सबसे बड़ी परीक्षा संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास कर ली है। " उसी का समाचार पंडितजी लेकर आये हैं। अब तो मनोज के घर वालों के आँखों में भी आसुओं की धारा बहने लगती है। तभी पंडितजी सम्हलते हुए वही समाचार मनोज के पिताजी को सुनाते हुए बोलते हैं कि तेरा बेटा पुरे भारत का सबसे बड़ा अधिकारी बनने की परीक्षा को पास कर लिया है।
फिर भी मनोज के पिताजी और पुरे परिवार को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उनके परिवार का कोई लड़का आज ऐसा कारनामा भी कर दिखलाया है। जिसे पूरा कर पाने में अच्छे अच्छे ज्ञानियों और संसाधन व पैसे वालों के घरों के लड़कों की भी हालत खराब हो जाती है। और वे उसे पूरा नहीं कर पाते हैं। लेकिन आज यह हकीकत में बदल गया कि अगर आपके पास कुछ भी न हो तो भी आपको आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता है। चाण्यक्य ने भी तो लगभग आज से बहुत साल पहले कुछ ऐसा ही किया था। उनके शिष्य चन्द्रगुप्त के पास कुछ भी न होते हुए भी उसे मगध ही नहीं पुरे भारत का सम्राट बनाया था।
ठीक उसी प्रकार से मनोज के गुरूजी दीनदयाल पाठक जी और मनोज ने अपनी मजबूत इच्छा और मेहनत के बाल पर अपने सपनों की उड़ान को पंख लगाकर हकीकत में बदल दिया था। और इसमें जितना उसकी मेहनत थी उतना ही उसके मास्टर जी दीनदयाल पाठक जी का भी हाथ था। उन्होंने ही तो उसकी काबिलियत को पहचानकर यहां तक पहुंचाया। और सिर्फ पंहुचाया ही नहीं एक बेटे की तरह जहां भी जरूरत लगी, वहां वह उसके साथ उसके पालक बनकर खड़े भी रहे। नहीं तो मनोज और उसके पिता व परिवार के पास गाँव के विद्यालय तक भेजने की भी समर्थता नहीं थी। मनोज ने भी उनके विश्वास को जाया नहीं जाने दिया। उनके सपनो को पूरा करके आज उनके सामने खड़ा था।
यह बात अभी भी उसके लिए उसके लिए, उसके परिवार के लिए और उसके पुरे समाज के लिए एक सपना ही लग रहा था। उन्हें तो अभी भी विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उनके बीच का कोई लड़का इतनी बड़ी परीक्षा पास भी कर लिया है जिसे पास करने में अच्छों अच्छों ज्ञानी लड़कों की पूरी जवानी ही निकल जाती है।
खैर उनके परिवार और पुरे गाँव को विश्वास हो या न हो। आज यही हकीकत थी कि, उनके गाँव का एक लड़का, जिसका नाम मनोज है वह भारत का सबसे बड़ा अधिकारी बन गया था। जो पुरे क्षेत्र के लिए चर्चा का भी विषय बन गया था। और छोटे बड़े सभी लोंगो के लिए एक मिसाल भी बन गया था कि अगर आप में हिम्मत है और खुद के प्रति विश्वास है तो आप बिना सन्साधन के भी कोई भी लड़ाई जीत सकते हो। बस जरूरत है लग्न और एक सकारात्मक सोच के साथ खुद पर विश्वास करने की।
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