Breaking

Recent Posts: Label / Tag Ex:

Monday 8 May 2023

थैलासीमिया : जागरूकता, जाँच और उपचार ही बचाव है

थैलासीमिया : जागरूकता, जाँच और उपचार ही बचाव है 

(दिन विशेष ८ मई)

PIC BY ARPAN THALASSEMIA SOCEITY
MULUND MUMBAI


             आज भारत की जनसंख्या १४० करोड़ को पार कर गयी है। इस हिसाब से चीन को पछाड़ कर भारत विश्व की सबसे बड़ी जनसँख्या वाला देश बन गया है।  इसी १४० करोड़ आबादी वाले देश में हर साल लगभग १० से १५ हजार के करीब थैलासीमिया से ग्रसित बच्चों का जन्म होता है। थैलासीमिया एक नाइलाज बिमारी है। आज पुरे भारत में लगभग २ से २.५ लाख के करीब थैलासीमिया से ग्रसित बच्चे हैं। जिनमे से १२ से १५ वर्ष की आयु तक पहुँचते पहुँचते बहुत से बच्चों की जानकारी के आभाव में या तो महंगी इलाज होने की वजह से उपयुक्त इलाज न मिल पाने पर मृत्यु हो जाती है। इन थैलासीमिया से पीड़ित बच्चों पर प्रति मरीज १. ५ से २ लाख तक खर्चा आता है। साथ में थैलासीमिया से पीड़ित बच्चों को पुरे साल में ५० लाख यूनिट के करीब खून की जरुरत पड़ती है। समय पर खून न मिल पाने पर थैलासीमियासे पीड़ित बच्चों की पीड़ा बढ़ती चली जाती है। 












             थैलासीमिया एक वंशानुगत विकार है। यह बच्चों को उनके माता-पिता से अनुवांशिक के तौर पर मिलता है। तब होता है जब हमारे शरीर में हीमोग्लोबिन पर्याप्त मात्रा में नहीं बन पाता है। जिसके कारण रक्तक्षीणता के लक्षण प्रकट होते हैं। हीमोग्लोबिन दो तरह के प्रोटीनों से बनता है।  जिसका नाम है अल्फ़ा ग्लोबिन और बीटा ग्लोबिन। थैलासीमिया इन प्रोटीनों में ग्लोबिन के निर्माण क्रिया में खराबी के कारण होता है। जिसके कारण लाल रक्त की कोशिकाओं का नष्टीकरण बहुत ही तेजी से होता है। ऐसे बच्चों में खून की बहुत ही कमी होने लगती है जिससे उन्हें हर महीने खून चढाने की जरुरत पड़ती है।  लाल रक्त कोशिकाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा जो शरीर को सभी कोशिकाओं तक ऑक्सीजन ले जाने का काम करता है। शरीर में हीमोग्लोबिन न बनने या बहुत ही काम बनने की वजह से ऑक्सीजन का निर्माण नहीं हो पाता है। रक्त परवाह में कुछ स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाएं होती है जो एनीमिया का कारण बनती है। ऐसे मरीज का हीमोग्लोबिन असामान्य होने वजह से ऐसे बच्चे अन्य बच्चों की तरह सामान्य जीवन जी नहीं पाते हैं। ऐसे बच्चों को थैलासीमिया के साथ साथ अन्य बीमारियां भी घेर लेती हैं।  इनका ऑक्सीजन लेबल कभी भी कम हो जाता है। 



              थैलासीमिया में दो तरह के मरीज पाए जाते हैं। एक माइनर और दूसरे मेजर होते हैं। यदि माँ - बाप को माइनर थैलासीमिया है तो उनसे होने वाले बच्चे को मेजर थैलासीमिया हो सकता है।  अगर दोनों में से किसी एक को माइनर थैलासीमिया है तो बच्चे को माइनर थैलासीमिया होगा। जो मेजर  थैलासीमिया जितना खतरनाक नहीं होता है। भारत में माइनर  थैलासीमिया से पीड़ित मरीजों की संख्या भारत की कुल आबादी का ४-५ % है।  अगर इनके बारे में सही समय पर जानकारी नहीं मिलती है तो ये ही माइनर थैलासीमिया से पीड़ित बच्चे मेजर थैलासीमिया में प्रवेश कर जाते हैं। और लगभग जानकारी के आभाव में हर साल २५% माइनर थैलासीमिया से पीड़ित बच्चे मेजर थैलासीमिया में प्रवेश कर ही जाते हैं। क्योंकि कुल  माइनर थैलासीमिया में से २५% पीड़ित बच्चों को मेजर थैलासीमिया होने की संभावना प्रबल होती है। इसके लिए तीन चीजों की जानकारी होना बहुत ही आवश्यक है। जागरूकता, जाँच और उपचार। इसलिए  थैलासीमिया के उपचार में आवश्यक है कि शादी से पहले  ही महिला-पुरुष अपनी जांच करा ले। क्योंकि शोध के अनुसार अगर माता-पिता में से किसी एक को थैलासीमिया है तो उनके बच्चों को  थैलासीमिया होने की संभावना कम होती है।  या अगर होती भी है तो वे माइनर  थैलासीमिया से ग्रसित होते हैं। जो अन्य बच्चों की तरह ही होते हैं।  उन्हें ठीक समय पर उपचार मिलने पर मेजर  थैलासीमिया नहीं होता है। अगर दोनों को  थैलासीमिया है तो उनके बच्चों को  थैलासीमिया वो भी मेजर  थैलासीमिया होने की संभावना बहुत होती है। 




                  थैलासीमिया का पता जन्म से ३ महीने बाद पता चलता है। लोगो में जागरूकता न होने की वजह से इसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते हैं।  थैलासीमिया होने पर शरीर पर कुछ इसप्रकार के लक्षण दिखाई देते हैं। शरीर का सफेद होना, बार बार बुखार आना, वजन ना बढ़ना, और सूखा चेहरा दिखना जैसे अन्य तरह के लक्षण शुरुआती समय में ही दिखाई दे देता है।  थैलासीमिया से पीड़ित बच्चों को बाहर से बहुत ही ज्यादा रक्त चढाने की जरुरत पड़ती है।  एक आकड़े के अनुसार भारत में ऐसे रोग से पीड़ित बच्चों को पुरे वर्षभर में ५० लाख यूनिट तक खून की आवश्यकता पड़ती है।  थैलासीमिया की कोई कारगर दवा अभी विकसित तो नहीं हुयी है फिर भी इस रोग से ग्रसित बच्चों को कुछ दवाईयां भी खून के साथ साथ दी जाती है।  खून और दवाईयों का खर्चा बहुत होने की वजह से बहुत से अपने बच्चों का इलाज नहीं करवाते हैं।  जिसकी वजह से  थैलासीमिया से पीड़ित बहुत से बच्चों की मृत्यु १२-१५ वर्ष के बीच में हो जाती है। इसके लिए जरुरत है कि जगह जगह पर ऐसे बच्चों के लिए वाहन पर स्थित अस्तपताल में  थैलासीमिया  से पीड़ित बच्चों के लिए एक अलग से विभाग हो।  थैलासीमिया से पीड़ित बच्चे वहां पर जाकर अपना इलाज करा सके। 




                   थैलासीमिया में देखा गया है कि यह रोग आज भी लोगों की जागरूकता से बहुत दूर है। अर्पण सोसायटी जैसी बहुत सी संस्थाओं के कार्यकर्ता इसके प्रसार प्रचार में लगे हुए है फिर भी भारत जैसे कम साक्षर देशों के लोगों में इसके प्रति जागरूकता जागरूकता और रूढ़िवादी सोच होने की वजह से यह बिमारी बड़े ही तेजी से अपने फ़ैल रहा है। अगर थोड़ी सी सावधानी के साथ जागरूकता रखी जाए तो इस बिमारी के प्रमाण और प्रसार को कम किया जा सकता है। साथ में ऐसे बच्चों को खून की आवश्यकता बहुत पड़ती है। हम १ वर्ष में ४ बार अपना खून दान कर सकते हैं अगर किसी भी प्रकार की गंभीर बीमारी नहीं है तो।  हम इस प्रकार से ज्यादा से ज्यादा खून देकर ऐसे बच्चों के लिए जो  खून की कमी है उन्हें को दूर कर सकते हैं। ऐसे बच्चों में हीमोग्लोबिन में खराबी होने की वजह से खून नही बन पाता है जिसकी वजह से इन्हे हर महीने खून की आवश्यकता पड़ती है। अगर समाज में थैलासीमिया के प्रति जागरूकता जितना फैलेगी रक्त की कमी को दूर किया जा सकता है और साथ में बिमारी के फैलाव को भी काम किया जा सकता है। जो बच्चे सिर्फ पैसे की वजह से या किसी अन्य किसी वजह से अपना इलाज नहीं करा पाते हैं। उन बच्चों को और उनके माता पिता को थैलासीमिया का इलाज करवाने के लिए प्रेरित करके उन्हें एक नया जीवन दे सकते हैं।  जिसके वे हकदार हैं। 

- BLOGGER AJAY NAYAK 

www.nayaksblog.com






No comments:

Post a Comment