खबरिया चैनल और हमारे विद्यालय
ऐसा नहीं है कि किसी भी घटना में विद्यालय का कोई भी किरदार नहीं है। उसका उससे कोई संबंध नहीं है। हर घटना में उसकी जवाबदारी बनती है। लेकिन जिस तरह से आज के समय में आज के समाचार पत्र और खबरिया चैनल इसे पेश कर रहे हैं उससे विद्यालय जैसे पवित्र चीज पर ही प्रश्न चिन्ह लग रहा है है। कुछ समय के लिए ही लेकिन उन्हें खलनायक बना दिया जा रहा है। और पूरा समाज विद्यालय और उसमे काम करने वाले सभी शिक्षक व कर्मचारियों को दोषी समझने लगे हैं। जिसे एक समय में सबसे पवित्र जगह माना जाता था। आज वह सबसे ख़राब जगह बनते जा रहे हैं। वहां के के लोंगो पर संदेह किया जा रहा है।
ख़बरिया चैनलों को खबर दिखाते हुए ये ध्यान देना होगा कि कहीं उनके खबर से पुरे विद्यालय या विद्यालय के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह तो नहीं लग रहा है। क्योंकि भविष्य में एक छोटी से छोटी घटना पर भी (जिसमे विद्यालय परिवार का कोई रोल नहीं होगा ) लोग विद्यालय को ही शक के निगाह से देखेंगे। विद्यालयों के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाएगा।
और एक बार विश्वास की डोर टूट जाने पर उसे दुबारा जोड़ना बहुत ही मुश्किल का काम है। खबरिया चैनलों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए। हम उनके खबर दिखने पर आवाज नहीं उठा रहे हैं , उनके प्रस्तुत और दिखने के तरीकों पर उठा रहे हैं।
आज बहुत से बड़े-छोटे विद्यालयों के नए नए गलत कारनामे उनकी वजह से ही उजागर हुए हैं। विद्यालय चलने वाले और उसमे कार्य करने वाले सभी कर्मचारियों के अंदर एक ये बात आ गयी है की कोई ना कोई अब हम पर निगरानी रखने वाला आ गया है। अब हमे अपने काम पर ही ध्यान देना चाहिए। ये सब आज की खबरियां चैनलों की वजह से हुआ है ना कि सरकार की वजह से। फिर भी कहीं ना कहीं ऐसा लगता है कि आज के खबरिया चैनल कहीं ना कहीं कुछ ज्यादा ही बोल जाते हैं या कुछा ज्यादा ही दिखा जाते हैं। जिससे सभी विद्यालयों के सामने समस्या सी उत्पन्न हो जाती है। और वो समस्या है विशवास की। पालकों और विद्यालय के बिच विश्वास की खायी बन जाती है , जिसे बाहरणे में बहुत समय लग जाता है।
इसमें सारा दोष खबरियां चैनलों की ही नहीं है। विद्यालय की भी है। वे समय के अनुसार परिवर्तित हो रहे हैं लेकिन अपने विचारों को आज भी पुराने हिसाब से ही रखे हुए हैं। उनकी तत्परता आज भी २० साल पहले वाली ही है , किसी भी समस्या का कितनी जल्दी निपटारा करना है ये गुण ना के बराबर है। वही ढीला ढला रवैया रहता है किसी भी मामले में जब तक वो नासूर ना बन जाये। कुछ बड़े विद्यालय तो कमाने के ही जुगाड़ में लगे रहते हैं की कहाँ से कुछ रुपये विद्यालय को मिल जाए जिससे हमारी झोली भर जाए। उन्हें वहां की सुविधाओं से कोई सरोकार नहीं होता है। उनका पूरा ध्यान अपनी झोली भरने में ही रहता है। विद्यार्थियों पर तो ध्यान ही नहीं देते हैं। जिससे कहीं ना कहीं बहुत बड़ी घटना हो जाती है जिसकी चपेट में वे तो आते ही हैं और भी विद्यालय (विश्वास टूटने ) भी चपेट में आ जाते हैं।
दोनों को अपने - अपने लोंगो को लेकर यह सोचना होगा कि हमसे कहाँ गलती हो रही है। हमारे किसी काम से समाज के और लोंगो पर बुरा प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है। जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन हमारे सभी विद्यालय उस रुतबे में आ जायेंगे जैसे प्राचीन काल में थे। लेकिन ये समाज के हम दोनों तबकों से ही होगा। सरकार से किसी भी प्रकार से आशा करके बहुत ही बड़ी गलती होगी। क्योंकि आज जो भी हो रहा है ये उनकी किसी ना किसी गलत नीतियों की वाक्जाह से ही हो रहा है।
ये हमें ही करना होगा। और हम ये कर सकते हैं।
ख़बरिया चैनलों को खबर दिखाते हुए ये ध्यान देना होगा कि कहीं उनके खबर से पुरे विद्यालय या विद्यालय के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह तो नहीं लग रहा है। क्योंकि भविष्य में एक छोटी से छोटी घटना पर भी (जिसमे विद्यालय परिवार का कोई रोल नहीं होगा ) लोग विद्यालय को ही शक के निगाह से देखेंगे। विद्यालयों के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाएगा।
और एक बार विश्वास की डोर टूट जाने पर उसे दुबारा जोड़ना बहुत ही मुश्किल का काम है। खबरिया चैनलों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए। हम उनके खबर दिखने पर आवाज नहीं उठा रहे हैं , उनके प्रस्तुत और दिखने के तरीकों पर उठा रहे हैं।
आज बहुत से बड़े-छोटे विद्यालयों के नए नए गलत कारनामे उनकी वजह से ही उजागर हुए हैं। विद्यालय चलने वाले और उसमे कार्य करने वाले सभी कर्मचारियों के अंदर एक ये बात आ गयी है की कोई ना कोई अब हम पर निगरानी रखने वाला आ गया है। अब हमे अपने काम पर ही ध्यान देना चाहिए। ये सब आज की खबरियां चैनलों की वजह से हुआ है ना कि सरकार की वजह से। फिर भी कहीं ना कहीं ऐसा लगता है कि आज के खबरिया चैनल कहीं ना कहीं कुछ ज्यादा ही बोल जाते हैं या कुछा ज्यादा ही दिखा जाते हैं। जिससे सभी विद्यालयों के सामने समस्या सी उत्पन्न हो जाती है। और वो समस्या है विशवास की। पालकों और विद्यालय के बिच विश्वास की खायी बन जाती है , जिसे बाहरणे में बहुत समय लग जाता है।
इसमें सारा दोष खबरियां चैनलों की ही नहीं है। विद्यालय की भी है। वे समय के अनुसार परिवर्तित हो रहे हैं लेकिन अपने विचारों को आज भी पुराने हिसाब से ही रखे हुए हैं। उनकी तत्परता आज भी २० साल पहले वाली ही है , किसी भी समस्या का कितनी जल्दी निपटारा करना है ये गुण ना के बराबर है। वही ढीला ढला रवैया रहता है किसी भी मामले में जब तक वो नासूर ना बन जाये। कुछ बड़े विद्यालय तो कमाने के ही जुगाड़ में लगे रहते हैं की कहाँ से कुछ रुपये विद्यालय को मिल जाए जिससे हमारी झोली भर जाए। उन्हें वहां की सुविधाओं से कोई सरोकार नहीं होता है। उनका पूरा ध्यान अपनी झोली भरने में ही रहता है। विद्यार्थियों पर तो ध्यान ही नहीं देते हैं। जिससे कहीं ना कहीं बहुत बड़ी घटना हो जाती है जिसकी चपेट में वे तो आते ही हैं और भी विद्यालय (विश्वास टूटने ) भी चपेट में आ जाते हैं।
दोनों को अपने - अपने लोंगो को लेकर यह सोचना होगा कि हमसे कहाँ गलती हो रही है। हमारे किसी काम से समाज के और लोंगो पर बुरा प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है। जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन हमारे सभी विद्यालय उस रुतबे में आ जायेंगे जैसे प्राचीन काल में थे। लेकिन ये समाज के हम दोनों तबकों से ही होगा। सरकार से किसी भी प्रकार से आशा करके बहुत ही बड़ी गलती होगी। क्योंकि आज जो भी हो रहा है ये उनकी किसी ना किसी गलत नीतियों की वाक्जाह से ही हो रहा है।
ये हमें ही करना होगा। और हम ये कर सकते हैं।
hum ready he apke sath
ReplyDeleteहाँ । पालक मीटिंग में पालकों को बताए कि छोटी सी छोटी आपकी समस्या को हमे बताए हम हल निकालेंगे। आप का बच्चा हमारा बच्चा है क्योंकि 6 घंटे हमारे पास रहता है।
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