चिपको आंदोलन के 45 साल
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चिपको आंदोलन को आज 45 साल हो गए हैं। यह एक ऐसा गांधीवादी आंदोलन था जिसने भारत के साथ साथ पुरे विश्व को सोचने पर मजबूर कर दिया था। एक छोटे से गॉंव के लोंगो ने आज से 50 साल पहले ही ग्लोबल वार्मिग के परिणामों को जान लिया था। जिस पर हम आज खुलकर बाते कर रहे हैं , उस ज़माने में रैणी गाँव के लोंगो ने इस समस्या पर खुलकर चर्चा कि थी। जिसमे महिलाओं ने बढ़चढ़कर भाग ली थी। और उनकी अगुआ एक साधारण सी गाँव की महिला गौरा देवी थी। इसकी शुरुआत 1973 में हुयी थी। लेकिन इसकी नीव भारत - चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध में ही पड़ गयी थी। जब भारत चीन से युद्ध हार गया। तो भारत ने अपनी सीमा को सुरक्षित रखने के लिए उत्तरप्रदेश यानी अब के उत्तराखंड में नए सड़कों को बनाने का काम शुरू किया गया । जिसमे पेड़ बहुत ही बाधा बन रहे थे। जिसके लिए सरकार ने रोज डेढ़ से दो हजार पेड़ काटने का आदेश दे दिया गया था। और ठेकेदार बड़े पैमाने पर उतने पेड़ काटने लगे। और उत्तराखंड से पेड़ गायब होने लगे। पहाड़े असुरक्षित होने लगे थे।
उत्तराखंड तब के उत्तर प्रदेश के लोग पेड़ों को देवता सामान मानते थे। पुरे पहाड़ी के लोग पेड़ों को देवता मानकर उसकी पूजा किया करते थे। जब इस तरह से पेड़ काटने लगे तो उन्हें लगा की अगर ऐसे ही पेड़ काटते रहे तो कुछ दिन में ही पुरे उत्तरा खंड से पेड़ों का नामो निशान मिट जाएगा। और वे पेड़ ना काटकर हमारे देवता को काट रहे हैं। जिन्हे हम देवता के सामान पूजते हैं। ऐसी ही एक चर्चा उत्तराखंड के चमोली जिले के रैणी गाँव में हुयी। और चर्चा में पेड़ काटने के खिलाफ जोर शोर से आवाज उठाने वाली गौरा देवी थी। रैणी गाँव के लोंगो ने यह निर्णय लिया की हम अब अपने गाँव में एक भी पेड़ काटने नहीं देंगे। दूसरे दिन जब ठेकेदार और उनके आदमी आये तो गौरा देवी और उनके साथियों ने मिलकर उन्हें समझाया की ये हमारे देवता है। हम इनकी पूजा करते हैं आप इन पेड़ों को नहीं काट सकते हो। जब ठेकेदार उनकी बात नहीं माना और पेड़ काटने पर आमदा हो गया। तब गौरा देवी और उनकी 21 महिला साथियों ने मिलकर पेड़ों से चिपक गयी। और बोली की देवता सामान पेड़ों को काटने से पहले हमे काटना होगा। जब हमारे देवता ही नहीं रहेंगे तो हम क्या करेंगे रहकर। और फिर ठेकेदार उनके सामने झुक गए और बिना पेड़ काटे ही चले गए। ये खबर जब पुरे गाँव में फैली तो पूरा गाँव विरोध करने के लिए तैयार हो गया। इस प्रकार से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुयी।
इस प्रकार से ये खबर पुरे चमोली जिले में फ़ैल गयी। और फिर पुरे चमोली जिलों वालों ने मिलकर आज के दिन यानि 26 मार्च 1973 में 'चिपको आंदोलन' की शुरुआत की। इस आंदोलन के अगुआ सुंदरलाल बहुगुणा, चांदी प्रसाद भट्ट और गौरा देवी थी। यह आंदोलन इतना सफल रहा की भारत सरकार ने 1980 में "1980 वन अधिनियम क़ानून" बनाया। साथ में ही केंद्र में ,केंद्र सरकार के द्वारा "पर्यावरण मंत्रालय बनाया गया। इसे आंदोलन की सफलता ही कहेंगे कि इंदिरा जी ने कश्मीर, उत्तरप्रदेश साथ में अब का उत्तराखंड , हिमाचल प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में पेड़ काटने पर 15 सालों के लिए प्रतिबन्ध ही लगा दिया। और यह आंदोलन धीरे धीरे बिहार , पच्चिम बंगाल , उड़ीसा , मध्यप्रदेश जैसे राज्यों तक फ़ैल गया था।
गौरा देवी और उनके गाँव के लोंगो ने बहुत साल पहले ही ग्लोबल वार्मिंग के बारे में जान लिया था। कारण आप कुछ भी बता सकते हो लेकिन उन कारणों में एक कारण यह था की वे पेड़ों के महत्त्व को समझते थे। तभी उन्होंने उन पेड़ों को देवता माना और उनकी पूजा किया करते थे। उत्तराखण्ड के कुछ गाँवों में पेड़ की पत्तियां भी नहीं तोड़ते हैं। और उन पत्तियों की पूजा होती है। यह उनका अन्धविश्वाश नहीं है ये उनकी पर्यावरण के प्रति सजगता है। उन्हें मालुम था और मालुम है की ये पेड़ हैं तभी ये हमारे गाँव, शहर और हम है। जिस दिन ये नहीं रहे उस दिन हमारा ये पूरा का पूरा पहाड़ी इलाका ख़त्म हो जाएगा। इसलिए उन्होंने अपने पेड़ों को बचाने में थोड़ी भी देरी किये बिना। तुरंत चिपको आंदोलन के भागिदार बन गए। जिसका नतीजा हमें आज दिख रहा है।
आज हमें पेड़ों के अंधाधुंध कटाई के नतीजे भी दिख रहे हैं। कुछ साल पहले केदारनाथ में जो भीषण तबाही आयी थी। विश्व और भारत के पर्यावरणविदों के शोध से पता चला की इस भीषण बाढ़ का कारण पहाड़ी इलाकों में हो रही अंधाधुंध पेड़ों की कटाई भी है। अगर हमें अपने पहाड़ों को बचाना है तो पहाड़ों पर हो रही पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को रोकना होगा। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब हमारे ना तो पहाड़ रहेंगे और ना ही वहां पर बसने वाली मानव जाति। आज हम विकास के चक्कर में इतने पागल हो गए हैं कि हम ये बिलकुल ही नहीं समझ पा रहे हैं कि "जिस डाल पर बैठे हैं उसी डाल को काट रहे हैं।" आज पुरे विश्व में चिपको आंदोलन चल रहा है लेकिन हमारे यहां यह आंदोलन कुंद पड़ गयी है। जैसे इसकी जरुरत ही नहीं है। सरकार तो पहले से ही इसके प्रति उदासीन थी। लेकिन अब हमारी आम जनता भी इसके प्रति उदासीन हो चुकी है। जब कहीं कुछ भीषण प्राकृतिक आपदाएं आती है तो हमारी जनता के बिच रहने वाले कुछ बुधहजीवी चिल्लाते हैं तो सरकार के कान में जूँ रेंगती है। और कुछ इधर उधर का काम दिखा के जनता को चुप करा देती है। जनता चुप , हमारी सरकारें भी चुप।
हमारा लेख आप लोंगो को कैसा लगा है। उसके बारे में लिखिए। और साथ में लेख से संबंधित सुझाव स्वीकार्य हैं। हमारे और blog पढ़ने के लिए nayaksblog.com जाईये।
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