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Saturday 9 May 2020

एक बार फिर रण छोड़ता मजदुर


एक बार फिर रण छोड़ता मजदुर 

   मैं मजदुर हूँ 
देश की साँस हूँ 
मेहनत कर दूं 
समुन्द्र सेतु बना दूं 
खंडहर को  महल बना दूं 
सिया को राम से मिला दूं 
सोने की लंका को  
सिर्फ लंका बना दूं 
जिसने भी मुझे जाना 
मुझे सम्मान दिया 
मुझे प्यार दिया 
उन्हें ही हमने आज 
उच्च स्थान दिया 
विश्व को फ़्रांस 
चीन अमेरिका दिया। 
हमे भी  सहारा दो 
हमे थोडा विश्वास दो 
राहू केतु जिस घर में बैठे 
उसे सिर्फ बर्बाद किया 
हम जिस घर में भी बैठे 
हमेशा उसे आबाद किया। 
बस हमे थोडा सा भरोसा
विश्वास और साहस तो दो। 

              आज वो फिर निकल चूका है अपनी उन्ही राहों पर जिन्हें यह सोचकर छोड़ दिया था की अपनी मेहनत के बल पर इन राहों को और आगे ले जाऊंगा। लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ . वो कहते हैं ना मजदुर की किस्मत भी उनकी मजदूरी की तरह ही होती है सुबह से शाम तक जबतक शरीर का चूरम ना बन जाए तब तक उसे एक रुपया भी ठीक से नसीब में नही होता है।  फिर किस्मत कैसे उसे इतने आसानी से सबकुछ सजा सजाया परात में दे, दे।  वो तो उसे और भी ज्यादा रुलाएगी उसे और भी ज्यादा तड़पायेगी. क्योंकि उसे किस्मत जो बदलना है उस मजदुर का।  
           कल निकला था दो वक्त के निवाले के लिए।  
           आज निकला है, अपने ठौर ठिकाने पर सही सलामत पहुचने के लिए ।  
           उसे दर दर कल भी भटकना था।  
           उसे आज भी दर दर भटकना है।  
           वह कल भी, दो वक्त की रोटी के लिए लड़ रहा था। 
           वह आज भी, दो वक्त की रोटी के लिए लड़ रहा है।
           उसकी किस्मत में लड़ना और भटकना जो लिख दिया गया है . 
         
               अचानक आये इस करोना महामारी ने उन्हें कहीं का भी नहीं छोड़ा। इसके पहले भी कई प्रकार की मुसीबतों से वे लड़ चुके हैं। उनसे अपने हिम्मत और साहस के बल पर जीते भी हैं।  लेकिन इस महामारी से उनके अंदर सिर्फ शंकाओं का ही निर्माण हो रहा है। ऐसा नही है कि उन्हें इस बीमारी के बारे में या इसके असर के बारे में पता नहीं है।  सब पता है उन्हें, सिर्फ उन्हें ये नही पता है कि इस बिमारी से आज और इसके जाने के बाद उनका और उनके काम का क्या होगा ?  यह सवाल उनके मन में निर्माण भी क्यों ना हो। जो रोज कमाता हो, उसी के बल पर जीता हो और रोज मरता हो उसके दिमाग में ये शंकाए आनी आम बात है। जिसे कोई भी नहीं रोक सकता है।
                 वैसे भी करोना से पहले भी उनका कोई राज ठाठ जैसा रहनसहन खानपान या कामकाज नही था।  लेकिन इतना ही था की उनकी जिन्दगी की गाड़ी आराम से खसक रही थी। एक बात और जब गाड़ी सिर्फ खसकती है तो उस गाड़ी के बारे में तमाम प्रकार की शंकाए बनी रहती है।  गतव्य स्थान तक पहुंचेगी की नही?  रस्ते में ही कहीं धोखा तो नहीं दे देगी?  इतने लोगों का भार उठा पायेगी?  जैसे कई सवालों के साथ शंकाए अपनी उम्र के साथ मजबूत होती चली जाती है। इन्ही शंकाओं के साथ चल रही थी तो चल रही थी।  जिसे आप अच्छा भी बोल सकते हैं और ख़राब भी।  जिस नजरिये से आप देखेंगे। 
                अब उपर से करोना जैसी महामारी का आगमन हो जाये, तो वह शंकाए अपने और उच्च स्थान पर पहुँचकर गहराती  हुयी चली जाती है।  जिसका निराकरण और कठिन लगने लगता है, जैसे बीच भवर में फसे इंसान और उसके नाव को बाहर निकालना मुश्किल क्या नामुमकिन लगने लगता है। जो  एक पुरानी हो चुकी नाव जिसमे कई जगह छेद हैं फिर भी वह उस नाव को अपनी हिम्मत और अपने बाहूबल के भरोसे इस पार से उस पार ले जाने के लिए एक इमानादरी भरा प्रयास करता है। और बीच भंवर में फंस जाता हो . कभी कभी लोग कहते हैं की किस्मत भी धनवानों का ही साथ देती है।  वह बात भी यहाँ बिल्कुल ही सच होती है।  वह पुरानी नाव नदी के बीच पहुँचते ही नदी के अंदर के अंदर बनने वाली भंवर में फंस जाती है।  जिस भंवर से बहुत ही कम लोग निकल पाते हैं। एक तो नाव में पहले सही छेद है उपर से वो भंवर . आज कुछ वैसी ही हालत करोना से लड़ रहे उन सभी मजदूरों का भी हो गया है। जो करोना रूपी भंवर में फंस चुके हैं और उन्हें कोई रास्ता नही मिल रहा है सिवाय फिर से उसी जगह लौटने के।  जहाँ से वे पेट भरने के लिए निकल आये थे।  
             वैसे उनकी हालत तो पहले से ही पतली थी। फिर भी हिम्मत और अपने साहस के बल पर तैयार हुए, की हम भी लड़ेंगे इस करोना जैसी विश्वव्यापी महामारी से। लेकिन वे जब देखते हैं कि जिनके पास बहुत कुछ है वे तो लड़ ही नहीं पा रहे हैं या लड़ना ही नहीं चाहते हैं।  तो हम किस खेत की मुली हैं।  हमारे पास वैसे भी बहुत ही कम संसाधन है।  जो है भी वो कब खत्म हो जाएगा पता नही।
             अगर उसे एक ही मोर्चे पर लड़ना होता तो वह लड़ भी लेता। लेकिन उसे एक ही मोर्चे पर तीन चीजों से लड़ना है।  एक तो महामारी से ताकि वह जिन्दा भी रह सके, दूसरा यह कि कोई यह न कह सके की इसने थोड़ी भी हिम्मत करके लड़ाई नहीं लड़ी यानि लोगो के तानो से ।  अगर हमारे निचले तबके के मजदुर वर्ग थोड़ी बहुत भी हिम्मत दिखाकर इस लड़ाई को लड़ा होता तो कभी का महामारी हमारे गाँव शहर देश से ख़त्म हो गया होता। लेकिन नहीं लड़े, जिसकी वजह से हमे करोना से युद्ध जितने में इतना समय लग गया। या लग रहा है .
           तीसरी लड़ाई तो उसे उस भूख के खिलाफ भी लड़ना है जिससे वह सदियों से लड़ता हुआ चला आ रहा है और आज भी लड़ रहा है। जिसमे सफलता की मात्रा भी इतनी कम है की आप उन्हें आसानी से अपनी उँगलियों पर गिन सकते हैं।   अब चूँकि वह रोज कमाता है तो रोज उसी से खरीदता है और फिर उसी राशन से अपने परिवार का पेट भरता है।
            कुछ लोग उसके इस तरह से छोड़ के जाने का मजाक बना रहे हैं कि इस कर्मभूमि शहर ने उन्हें रोटी दिया है।  और आज मुश्किल समय में उसका साथ छोड़कर चले जा रहे हैं.  और कुछ कह रहे हैं कि वे इस शहर के साथ अपने अंतिम साँस तक रहेंगे।  अरे भाई जाना वह भी नही चाहता है।  लेकिन क्या करे आपके पास विश्वास ही सही,विश्वाश के रूप में कुछ तो भविष्य का कोई ना कोई हिस्सा है।  उसके पास कुछ नही है।  न भूत न वतर्मान और भविष्य के बारे में पूछो ही मत।
         अब आप हम ही इस पहेली को हल करें की वह किस आधार पर लड़े।  एक बार वह खुद तो भूखा रह सकता है जो कि कई बार ऐसा उसके साथ हो भी जाता है और हुआ भी है।  लेकिन उस नवजात को या उसके उपर आश्रित रहने वालों को कैसे भूखा रखे. जिसे दूध भी कमाते हुए पिता के पैसों से सही समय पर बड़े ही नस्सिब से मिल पाता है। 
            वे हारना नहीं चाहते थे जाना तो बिल्कुल ही नही चाहते थे।  कम से कम इस बार तो बिल्कुल ही नहीं हारना और जाना नही चाहते थे।  लेकिन वे हार गये! फिर से उन्हें अपने कर्मस्थली को छोड़कर निकलना पड़ा . 21 दिन तक तो लड़े, बहुत ही डटकर लड़े!  लेकिन क्षमता ही उतनी थी लड़ने की तो इससे ज्यादा कैसे लड़ते! फिरभी उन्होंने हिम्मत और साहस के साथ अगले 19 दिन को भी लड़ा ! लेकिन अब उनकी हिम्मत और साहस ने एकदम से जवाब दे दिया।  इन्ही दोनों के सहारे लड़ भी रहे थे।  अब जब यही जवाब दे दिया तो किसके बल पर लड़े।   सो पहले एक निकला, फिर दूसरा निकला और इसप्रकार से अगले 19 दिन में हजारो की संख्या में पैदल ही सही निकल पड़े ।  जिसे जो मिला वह उसी से अपने मूलस्थान पर सही सलामत पहुँचने के लिए निकल पड़ा। फिर चाहे कोई कितना भी उन्हें रोकने का प्रयास किया क्यों ना हो।  अब उनके मन में एक ही चीज थी की वे कैसे भी अपने घर पहुँच जाए।  भले ही, उसे वहां भी भूखे ही क्यों ना मरना पड़े ।  भूखे मरने की सम्भावना वहां इसलिए भी ज्यादा है की अगर वहां रोजगार होता या 2 रूपये भी उन्हें वहां सही से मिलते तो वे कभी अपनी मिटटी को छोड़कर कहि और जाने की जरुरत ही नहीं पड़ती। वहां कुछ नही था इसलिए घरबार छोड़ छाड़ जहां उनके लिए रोजगार के साधन थे जहाँ उनकी भूख मिट सकती है वे वहां पर चले गये।  कुछ की किस्मत अच्छी थी तो वे वहीं पर तरक्की करके चले गये और वहीं अपना एक अच्छा सा आशियाना बना लिया ।  और कुछ जैसे पहले थे वैसे ही आज भी है. सबकी किस्मत एक जैसे तो होती नही है।
             ये वही हैं जिन्होंने हमे इतनी उंचाईयों पर बैठाया है। आज इन्हें सहारे की जरूरत है।  इनके मनोबल को बढाने की जरूरत है।  क्योंकि मजदूरों की कोई सरहद नही होती है।  ये जहाँ भी गये अपने मेहनत और साहस के बल पर खंडहर जैसे स्थानों को खडा करने का ही काम किया है।  यह इतने ही मत्त्व्पूर्ण नहीं होते तो अंग्रेज इन्हें अपने साथ सात समुन्द्र पार गन्ने के खेतों में काम करवाने के लिए नहीं ले जाते।  आज खाड़ी देश या पूर्वी के कुछ देश अगर तरक्की की उंचाईयों को छू रहे हैं तो वह भी इन्ही के बदौलत।  आज हमारा देश भी तरक्की जो कुछ भी कर रहा है जब इन्ही के बदौलत है।
            एक ठंडे (AC) घर या कार्यालय में हम किसी भी चीज का नियोजन तो आसानी से कर सकते हैं लेकिन 45 से 50 या उससे भी ज्यादा गर्मी में यही तबका जी जान लगाकर अपनी मेहनत के बल पर इन्ही ठन्डे (AC) घरों या कार्यालयों में बने नियोजनों को असल जमीन पर सफल बनाता है। इसी प्रकार से ठंडी हो या बहुत ही बारिश किसी भी मौसम में अपने पैर पीछे नही लेता है .  उपर से आदेश मिला और वह अपने काम में काम के बारे में बिना जाने  सुने भीड़ जाता है. वह यह भी पता नही लगाता है  कि उससे  उसका क्या नुकसान  हो सकता है।  सभी चीजों को बगल में रखकर भीड़ जाता है।  क्योंकि उसे यह पता होता है की उसे लोग उसके काम करने पर ही उसे कुछ पैसे देते हैं। जिससे वह अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी खरीद पाता है। कुछ जरुरत की चीजे इकठ्ठा कर पाता है. तन को ढकने के लिए कुछ कपड़ों की व्यवस्था कर पाता है.इसलिए उसका यह जानना बिल्कुल हई मायने नहीं रखता है कि इस काम का उसके जिव या उसके शरीर पर क्या असर पड़ेगा . उसका कितना  कितना नुकसान करेगी .
        आज वही अभागे अपने घर की तरफ निकल पड़े हैं।  कुछ अकेले हैं, तो कुछ तो छोटे छोटे बच्चों के साथ अपने पुरे परिवार के साथ निकल पड़े हैं।  आज भी निकल ही रहे हैं।  ऐसा नही की सरकारों ने उनके लिए किसी प्रकार की व्यवस्था नही की है।  सभी प्रकार की व्यवस्थाये तो कर रही है जो उनसे हो सकता है।  उनके साथ ही स्वंयसेवक संस्थाए भी अपनी तरफ से मजदूरों के भोजन की व्यवस्था के लिए अपनी पूरी ताकत झोक दिए हैं।  लेकिन वो कहते हैं ना विश्वास है तो पुरे जग को जीता जा सकता है।  लेकिन अगर विश्वास ही नहीं हो तो जग क्या अपने शरीर पर लगे छोटे से घाव से भी लोग हार जाते हैं।  ठीक वैसे ही इन मजदूरों के साथ हो गया है। आज उनका विश्वास ही डगमगा गया है।  जिसे कोई नही दे पा रहा है।  खासकर हमारी सरकारें जिनका काम ही है अपने इस मेहनती और साहसी वर्ग का सरंक्षण करना।  लेकिन इस तरफ कोई भी कार्य नही हो रहा है।  जिसकी उन्हें सबसे ज्यादा जरुरत है। उपर से ही कुछ लोग और दुष्प्रचार करके उन्हें भूखे मरने और भागने के चक्कर में ही पड़े हैं। राजनितिक पार्टिया भी सिर्फ अपना वोट बैंक ही देख रही हैं।  कैसे एक को दुसरे के खिलाफ भड़काए ताकि जब चुनाव आये तो उसकी वाह वाही में उनसे उनका वोट ले संके।  भले उनके मुसीबत के समय उन्हें झुनझुना के सिर्फ कुछ ना दिए हों।
                                            - BLOGR अजय नायक
                                              www.nayaksblog.com





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