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Saturday 1 August 2020

'मित्र दिवस' के बारे में कुछ रोचक बातें

मित्र  दिवस 


आज मित्रता दिवस है। अंतरार्ष्ट्रीय मित्रता गुरूवार को ही था।  यानि वह जुलाई में ही पड़ता है, और भारत का मित्रता दिवस अगस्त महीने के पहले रविवार को पड़ता है। छुट्टी का दिन होने की वजह से इसे लोग या तो एक दिन पहले ही मना लेते हैं या तो अगले दिन यानि सोमवार को मनाते हैं। वो क्या है न भारत में बिना काम के लड़कों और लड़कियों को घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं होती है। अगर रविवार है तो और ज्यादा । ऊपर से दोस्ती करने का दिन अगर पड़ जाए तो फिर समझ लीजिए कि उस दिन उनके लिए काला पानी की सजा मुकर्रर कर दी गयी है। फिर भी लड़के तो लड़के होते हैं वे काल्या बनकर किसी भी जेल को कभी भी तोड़कर भाग जाते हैं भले बाद में अंजाम बुरा ही क्यों न हो। लड़कियां तो काल्या बनने की बहुत दूर की बात वे तो सोच भी नही सकती है बिना काम के क्या, काम से भी रविवार को अपनी चौखट को लांघ कर बाहर निकलने की। बड़े शहरों की अलग ही बात है। वहाँ हर किसी को आजादी है बहाने वाली। 
अच्छा अगर कुछ को इजाजत मिलती भी है तो उन्हें हजारो सवालों के जवाब देने के लिए तैयार रहने पर या तो हजारों सवाल के जवाब दें देने पर। अब इतना झंझट कौन लेगा।  उससे अच्छा है अगले दिन काम पर जाते वक्त, विद्यालय या कालेज जाने पर ही दोस्ती का दिन मना लेंगे।  पहले तो फोन नहीं था इसलिए सबकुछ सोमवार या शनिवार को ही मनाया जाता था।  लेकिन मोबाइल आने की वजह से थोड़ी आसानी हो गयी है। अब दोस्ती वाले दिन यानि रविवार के दिन भी घर बैठे बैठे मना लेते हैं। परिवार के रोकटोक का झंझट भी नहीं रहता है।  बस रहता है फ्रेन्शिप बैंड बांधने की तो उसे अगले दिन जाकर बाँध लेते हैं। 
वैसे तो इसमें लड़का लड़की सब शामिल होते हैं  लेकिन एक बात और इसकी रहती है। दोस्त सभी को बनाते हैं लेकिन किसी एक को ही लाल बैंड बांधकर ख़ास दोस्त बनाते हैं।  और यही बैंड १४ फरवरी को यानि वेलेंटाइनडे को लाल गुलाब के फूल का रूप ले लेता है।  अगर इन छह महीनो में सब कुछ ठीक रहा तो। वो क्या है दोस्त तो बन जाते हैं लेकिन कभी कभी जल्दीबाजी में दोस्त क्या होता है उस रिश्ते को ही भूल जाते हैं और बिना उसके कुछ सोंचे खुद ही बहुत कुछ सोचकर बंदरों जैसी हरकते करने लगते हैं। जिसके कारण बीच मे ही अनबन या तो बस चलती रहती है। इसलिए उनके लिए कह रहे हैं कि सब कुछ ठीक नहीं रहा तो अगले से अगले वेलेंटाइनडे तक लगे रहिये।  
कुछ लोंगो को तुरन्त हाँ में जवाब मिल जाता है। अच्छा जिन्हें तुरन्त और एक ही प्रयास में हाँ का जवाब मिल जाता है वे तो अपने आप को इतना भाग्यशाली समझते हैं कि जैसे घर बैठे बैठे गंगा स्नान कर लिए हों। तो कुछ लोंगो के लिए जो दोस्ती रहती भी है उसको भी तुरंत ही खत्म करने के साथ एकदम से ना हो जाता है। उनके लिए तो सदमे से कम नही होता है। उसमें से कुछ सम्हल जाते हैं और अगले प्रयास के लिए तैयार हो जाते हैं तो कुछ के बारे में कुछ नही बोल सकते हैं कि वे क्या कर सकते हैं!
अच्छा कुछ ऐसे भी होते हैं जो वहीं अपनी नसीब का रोना रोते हुए राम राम नाम सत्य है, बोलते हुए एक किनारे हो जाते हैं। फिर वे किसी और आग में हाथ डालने की भविष्य में भी सोचते भी नहीं है। उन्हें लगता है कि ये सब उनके नसीब में नही लिखा है। इसलिए जो मिले उसे ही दोस्त बना लो। नही तो भगवान मालिक तो हैं ही। 
उसमे से भी कुछ अनमने मन से फिर उठ खड़े होते हैं। यह सोचते हुए मन ही मन बड़बड़ाते हुए की एक बार असफल हो गए तो क्या हुआ चलो एक और प्रयास किया जाये।  ये होते हैं नसीब पर अवलम्बित रहने वाले लोग। नसीब ने खेल खेला तो सफल नहीं तो फिर असफल होकर खुद को छोड़कर ताउम्र नसीब को गाली देते हुए लोंगो को अपनी कहानियां सुनाते बैठ जाते हैं। जैसे गाँव का सबसे निक्कमा आदमी चौबुतरे पर अपने जमाने में एक हाथ से ही बड़े से बड़े पहाड़ खोद देने की बातें करते रहता है । और लोग उधर से मनोरंजन के रूप में उसकी बातें सुनकर मन ही मन चटकारे लेते रहते हैं कि इसकी बात में दम है या नही लेकिन इस बात में दम जरूर है कि उसकी बातें सुनकर शरीर की खोई सारी ऊर्जा फिर से वापस आ जाती है। आउर ये इधर कहानी तो ऐसे सुनाते हैं जैसे उस समय बहुत कुछ किये थे फिर भी दोस्ती नहीं कर पाए थे।  जबकि सही मायनो में इनके जैसे लोग नसीब के तालाब में ही उडी मारा किया करते थे। तैरने नही आता था तो नसीब को दोष देकर या पानी का दोष देकर बाहर आ जाये किया करते हैं।
अब आते हैं वे लोग जो पहली बार में तो असफल हो जाते है लेकिन वे हार नहीं मानते हैं।  मन में ठान लेते हैं कि जबतलक सफलता हासिल नहीं होगी तबलक ऐसे ही लगे रहेंगे।  अच्छा इसमें भी कुछ ऐसे होते हैं जो एक यानि सिर्फ एक से ही दोस्ती करने के प्रयास में नहीं रहते हैं। ऐसे लोग एक ही समय में कई से करने के प्रयास में रहते हैं। उनका फंडा ही रहता है कि ये नहीं तो, ये ही सही, कोई तो दोस्ती को स्वीकार करेगा ही।  जिसने स्वीकार किया उसके दोस्त बन जाने का। नही किया तो आगे बढ़ जाने का। अब इसमें वह दोस्त फंस जाता है जो सोचता है कि थोड़ा सा ना नुकर करके ही दोस्ती को स्वीकार करने का। इससे थोड़ा भाव बढ़ जाता है। लेकिन उसे पता ही नहीं रहता है की उसके दोस्त ने एक ही समय में पता नहीं कितने जाल और कंटिये तालाब में फेक कर रखें है। 
अच्छा अब बात उनकी करते है, जो हार को कभी हार नहीं मानते हैं।  ये एकदम सकारात्मक विचार वाले होते हैं।  जो अपने प्रयासों से नसीब को भी पलटने का मादा रखते हैं। और करके भी दिखाते हैं।  नसीब को तो कोई नहीं जानता हैं फिर भी इनकी असफलता को भी लोग सफलता में ही स्वीकार करते हैं।  खासकर वह जिसने इनके दोस्ती के प्रस्ताव को अस्वीकार करके इन्हें दोस्त नहीं बनाया था।  वह भी मानता है कि दोस्त तो यही होना चाहिए था। लेकिन क्या करें हम ही आगे नही बढ़ पाए या उसके इतनी हिम्मत ही नही जुटा पाएं।
ये तो बात हो गयी हम उम्र वालों की अब बात आती है दो अलग अलग आयु का नेतृत्व करने वालों का। अच्छा इसमें भूतपूर्व नौजवान भी चीनी कम पानी बोलते नजर आ जाते हैं। और ये किसी न किसी अखबार या आज के भोंपू समाचार चैनलों के लिए मिर्च मसाला खबर बन जाते हैं। फला फला जगह भूतपूर्व नौजवान अपनी बीवी से मार खाया साथ में एक महिला भी । कारण दोनों दोस्ती के दिन एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए बीवी के रहते हुए या पति के रहते हुए सरे बाजार पकड़े गए। खैर ये बाद कि बात है । पहले उन्हें दोस्ती तो कर लेने देते हैं। 
तो ऐसे लोग भी दोस्ती के दिन का इंतजार करते रहते हैं । और दिन आते ही लाल बैंड आगे कर देते हैं । मान गयी तो मुगले आजम के जमाने के मुगले आजम देखने वाले उस दिन टाइटैनिक देखने के लिए निकल पड़ते हैं । यह सोचे बिना कि टाइटैनिक देखने के बाद उनकी नाव भी एक पत्नी या पति रूपा बर्फ से टकराने के लिए तैयार है। बस बाहर या वहाँ तक पहुंचने की जरूरत है। फिर जो होता है वैसा हॉल तो टाइटैनिक का भी नही हुआ था बर्फ से टकराने के बाद जो इन दो नए दोस्तों के साथ सरे बाज़ार होता है। ऊपर से आज की मीडिया को जब मन करे तब वही सीडी चलाकर जो कुछ न करते हों।
वैसे अब दोस्ती भी बाजारू हो गया है। दोस्ती का लोग अलग अलग अर्थ जो लगाने लगे हैं। फूल वाला अपने फूल के हिसाब से दोस्ती का अर्थ लगाता है। अरे भाई उस दिन उसके सबसे ज्यादा गुलाब जो बिकते हैं। भले वह गुलाब सही अंजाम तक पहुंचे या न पहुंचे ।यानि जिसके लिए लिया गया था उस तक पहुंचा की नही पहुँचा। दुकानदार को अपने फायदे से मतलब रहता है। अब जिसकी शुरुआत में ही फायदा शब्द का उपयोग हो गया हो वहाँ दोस्ती के मायने निकालना व्यर्थ ही होगा। यही हाल बैंड और ग्रीटिंग कार्ड वालों का भी है वे भी इस दिन का इंतजार सिर्फ अपने फायदे के लिए ही करते हैं। उनका एक ही उद्देश्य रहता है कि जितना हो सके उतना ही इस दिन का प्रचार प्रसार हो। ताकि हमारा उतना फायदा हो। 
वैसे वे ही क्यो न सोचें अपने फायदे के बारे में । जो दोस्ती करते हैं वे भी तो अपना कुछ न कुछ फायदा ही तो सोचकर दोस्त बनाते हैं। अब कर्ण और दुर्योधन को ही ले लीजिए। जब कर्ण का अपमान होता है तो दुर्योधन कर्ण को यह सोचकर दोस्त बनाता है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त । और तुरन्त उसे अपने एक क्षेत्र का राजा बना देता है जिससे कर्ण वही दुर्योधन के एहसान तलों दब जाता है। जबकि सच्चा मित्र ऐसा कभी नही करता है। वह मित्र को एहसान तले दबाता नही है । उल्टे उसे और मजबूत बनाता है बिना कुछ दिए। जैसे कृष्ण ने अर्जुन को बनाया । कृष्ण ने अर्जुन को कुछ नही दिया लेकिन एक चीज दी जिसके होने से महंगी से महंगी और बड़ी से बड़ी वस्तु भी अपनी न होकर दोस्त की वजह से अपनी लगनी लगती है । और वह है 'दोस्त का साथ'  एक समझदार दोस्त के लिए उसके दोस्त का साथ ही रहना उसका सबसे बड़ी दौलत होती है। और उसी का फायदा उठाते हुए अर्जुन ने अपने से बड़े बड़े योद्धाओं को परास्त कर दिया।
सुदामा कृष्ण और उद्धव माधव की जोड़ी भी सिर्फ साथ रहने की वजह से ही अमर हो पाई । नही तो पूरे यादव कुल के विनाश का श्राप मिला था लेकिन श्री कृष्ण ने अपने मित्र  उद्धव को प्यार का ज्ञानी बनाकर बचा दिया और खुद भगवान होकर श्राप के ग्राल में समा गए। ऐसा कौन करता है। वही करता है जो मित्र का 'साथ' पाता है। उसे मित्र के और किसी भी चीज की जरूरत नहीं रहती है वह सिर्फ मित्र के साथ को ही सर्वाधिक सर्वपरि मानता है। 
सभी देशवासियों को मित्रता दिन की हार्दिक बधाई। मित्र बनिये जरूरत न खुद बनिये और उन्हें बनाइये। सच्चा मित्र खुद ब खुद आपके लिए दौड़ता ही रहेगा। जैसे कृष्ण मित्र के लिए भरी सभा में अपमान का घुट सहने के बारे में जानते हुए भी दूत पांडवों की तरफ से दूत बनना स्वीकार किया था। और श्री राम ने एक मित्र के लिए पीछे से वार करने के लिए भी तैयार हो गए थे। जबकि उन्हें पता था कि उनके साथ यह लांछन जुड़ जाएगा कि उन्होंने एक वीर को पीछे से वार करके मारा था। लेकिन वही बोल रहे हैं ना यह दोस्ती 'साथ' के लिए हुई थी तो इसमें सबकुछ स्वीकार था। जिंदगी भर का लांछन भी।

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