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Thursday 3 September 2020

शिक्षक, विद्यार्थी, सरकार और चुनौतियाँ

 शिक्षक, विद्यार्थी, सरकार और चुनौतियाँ 


इस बार हम करोना के सायें में शिक्षक दिवस मना रहे हैं। इसी के साथ में हमें आज यह भी पता चल रहा है कि एक शिक्षक और विद्यालय की क्या अहमियत होती है! विद्यालय है, वर्ग है, सारी सुविधाएँ भी उपलब्ध है लेकिन अगर कोई उपलब्ध नहीं है तो वह हैं शिक्षक और विद्यार्थी। सुविधाओं के माध्यम से, इंटरनेट के माध्यम से वर्चुल वर्ग जैसे वर्ग तैयार कर लेंगे, लेकिन अगर ये दोनों जबतलक एक दूसरे के समक्ष उपलब्ध नहीं होंगे, एक दूसरे के सामने नहीं बैठेंगे तबतलक सब बेकार है।  अगर विश्वाश न हो तो ऑनलाइन वर्ग का एक सर्वेक्षण  करवा कर देख सकते हैं।  यह रिश्ता ही ऐसा है।तभी तो जब से धरती पर मनुष्य आये हैं गुरु शिष्य की परम्परा समय के साथ और ही प्रगाढ़ होती चली गयी है।  आज के तकीनीकी के जीवनकाल में भी इस रिश्ते को कोई तस से मस नहीं कर पा रहा है। अब आप समझ गए ही होंगे की एक शिक्षक की हमारे जीवन में कितनी अहमियत है। वो भी हमारे बिना कुछ पढ़े लिखे ही। 
आप सभी को बताते चलते हैं कि शिक्षक दिवस कैसे मनाया जाने लगा। तो आज यानि 5 सितंबर को स्वतंत्र भारत के दूसरे राष्ट्रपति दर्शनशास्त्र के विद्वान श्री. डॉ. सर्वपल्ली राधाकृषणनन जी का जन्मदिन भी है।  उनके जन्मदिन को ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। एक बार उनके कुछ अनुयायी उनका जन्मदिन मनाने के बारे में सोच रहे थे।  तो यह बात उन्हें पता चली तो, उन्होंने ही अपने सहयोगियों से कहा कि अगर हमारे जन्मदिन को मनाना ही चाहते हो तो इसे एक 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाये। ताकि संसार में शिक्षकों का मान सम्मान और बढ़ें और लोग एक शिक्षक के बारे में व उसके द्वारा किये जा रहे कार्यों को और अच्छे से समझ और जान पाए। तब से उनके जन्मदिन को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाने लगा।  जिसे बाद में भारत सरकार ने मान्यता प्रदान करके सभी विद्यालयों में 5  सितंबर को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाने का शासनादेश जारी कर दिया गया। 


समाज ने तो बहुत ही सम्मान दिया। लेकिन समय के साथ आगे बढ़ते हुए शायद ही शिक्षकों का मान सम्मान उस प्रकार से बढ़ा हो जैसे आजादी के पहले  या प्थाराचिन भारत में था। भारत को विश्वगुरु का दर्जा ऐसे ही थोड़े ना मिला था। गुरुजनों का दर्जा भगवान से भी ज्यादा सर्वोपिर यहाँ माना जाता था।  सभी राज शाही चाहे वे कितने भी क्रूर क्यों ना रहे हो वे कभी गुरु शिष्य के बिच में नही आते थे।  उल्टे वे अपने शासन में इसे सर्वोच्च स्थान पर रखने का प्रयास करते थे।  तब जाकर भारत विश्वगुरु बन सका था। और यहाँ पर नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय थे।  जहां विश्व भर के छात्र सिर्फ ज्ञान अर्जित करने के लिए आते थे। फिर क्या हुआ कि भारत का विश्वगुरु का दर्जा छीन गया।  जिसे आजादी के बाद भी हम इन ७० सालों में भी नहीं पा सके।  उसके आस पास भी भटक नही पा रहे हैं।  यह एक सोचने वाली विषय है। आजादी के पहले हमारे देश पर बाहरी आक्रान्ताओं ने आक्रमण किया इसे लूटा भी।  और अगर राज भी किये तो वे यहाँ कि संस्कृति को नष्ट ही किये हैं।  उसके बाद अंग्रेज भी सिर्फ लूटने के लिए ही आये थे।  तो कहाँ से यहाँ कि शिक्षा व्यवस्था पर ध्यान देते।  लेकिन तब और ताजुब होता है कि , आजाद भारत पर शासन करने वाले किसी पार्टी के सरकारों ने भी  उनके बारे में कुछ अलग से कुछ सोचा हो! सभी ने समय के अनुसार इस विभाग और इस विभाग में काम करने वाले शिक्षकों को सिर्फ हेय दृस्टि से ही देखा है! 
सत्ता पर काबिज होनेवाली सभी दलों को लगता है कि हमारा सारा राजस्व, यह विभाग बिना कुछ दिए ही ले चले जाता है। इसलिए इन्हे दो ही मत लेकिन जब भी दो भी तो उसके पहले इन्हे इतना रुला दो कि जब इन्हे कुछ मिले तो वह इनके काम के लायक बचे ही नहीं। जिसका नतीजा यह है कि आज सरकार के साथ साथ आम जन भी इस पेशे को हेय दृष्टि से देखने लगा हैं। उन्हें लगता है कि यह पेशा, कोई पेशा है। जहाँ तरक्की नाम की कोई चीज ही नहीं है।  ( आप सोच रहे हैं  कि सरकार तो इन्हे सातंवा वेतन आयोग दे रही है वो भी कुछ ही घंटे काम करने के तो आपको बता दें वह 1 ले से लेकर 7 वेतन आयोग सिर्फ उन विद्यालयों में लागू हैं जो सरकारी या अर्ध सरकारी है. जिनकी संख्या आज बहुत ही काम हो गयी है।) सरकारें धीरे धीरे सरकारी विद्यालयों की संख्या कम करती चली जा रही है। अब आप ही बताईये जिसकी वजह से इस पेशे में वही आ रहे हैं जो और किसी भी पेशे में जा नहीं पाते हैं। आप एक तरह से बोल सकते हैं कि उनकी मज़बूरी ने उन्हें यहां खींच लायी या कोई न कोई कारण जरूर होगा जिसकी वजह से, वह न आते हुए भी आ गया। 
एक समय था कि सबसे तेज विद्यार्थी के शिक्षा जीवन में शिक्षक बनना पहले नंबर पर होता था। जैसे आज के बच्चे बचपन से ही कुछ न कुछ बनने का सपना पाल कर रख लेते हैं। कुछ वैसे ही आज के ३०-४० साल पहले के बच्चे और उनके माता पिता के सपनो में पहला सपना शिक्षक बनना ही रहता था। लेकिन ऐसा क्या हो गया इन सालों में कि आज सपना का तो छोड़िये कोई वैसे भी बनना नहीं चाहता है। इसके एक आकर्षक का कारण सरकारी नौकरी है।  लेकिन समय के साथ साथ उसके भी बंद होने की वजह से भी अब लोग इस पेशे में आने से कतरा रहे हैं।  जिसकी वजह से योग्य शिक्षकों की कमी होती जा रही है। जिसका उदाहरण आपको देश भर से प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों का हो रहे स्टिंग आपरेशन करने के बाद पता चल ही जाता है। कि एक शिक्षक सरकार के द्वारा प्रायोजित परीक्षा को पास कर के तो आ जाता है लेकिन जब उससे एक सामान्य स्तर का पहाड़ा पूछने पर उनके दिमाग की पूरी बत्ती गुल हो जाती है। सोचिये उनकी शैक्षणिक स्थिति क्या होगी। आपके दिमाग यह प्रश्न होगा कि फिर वे परीक्षा कैसे पास की होंगी या किये होंगे तो उसके कई जवाब हो सकते हैं लेकिन हमारे हिसाब से एक सम्मान जनक यह जवाब है कि प्रतियोगिता परीक्षा पास करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है।  कभी कभी आप जो रट्टा मारे रहते हो वह भी प्रश्न आ जाते हैं। और लगभग वैसे ही प्रश्न आते ही रहते हैं। तो लग गया तुक्का और साथ में नसीब का तुका बस क्या पास हो गए। इसमें कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। 
सोचिये, कैसे विद्यार्थी तैयार होंगे हमारे गाँवों के और शहरी सरकारी विद्यालयों से। जहां सरकार एक अच्छे स्तर का शिक्षक भी नहीं भेज पा रही है। शिक्षक ही नही कितने शहर के ही सरकारी विद्यालय हैं जहाँ किसी भी प्रकार कि कोई सुविधा नही है। सुविधा कि बात छोडिये उनके लिए एक साफ़ सुथरा टायलेट तक नही है।  अगर है तो वह कभी साफ़ नहीं हो पाटा है क्योंकि उसकी निधि समय पर नहीं आ पाती है। कितने विद्यालयों के पास खेल का मैदान ही नहीं है।  सरकार यह भी जहमत नही उठती है कि अगर नही है तो वे पास के किसी और मैदान पर बच्चों को खिलाने के लिए ले जाते हैं कि नहीं।  बस कागज़ पर पूछ लेती है।  वैसे ही उन्हें उन्ही के कागज़ पर पर जवाब भी मिल जाता है।  
इन सभी का कारण हैं सरकार की दोषपूर्ण नीतियां और राजस्व का जरिया न होना। वह विद्यार्थियों के सम्बन्ध में तमाम प्रकार कि नीतियां तो समय समय पर बनाती रहती है और उन्हें लाती भी रहती है लेकिन शिक्षकों के संबंध में जिसके ऊपर एक देश का भविष्य निर्भर करता है जो सरकार के द्वारा लायी गयी नीतियों को सही से क्रियान्वय करके उसे जमीन पर उतारने का काम करते हैं उनके लिए एक पागार बढ़ाने के शिवा कुछ नहीं करती हैं। अच्छा जो पगार बढाती भी है समय समय पर वो भी पूर्ण रूप से दोषपूर्ण होता है। लेकिन यह कोई मायने नहीं रखता है।  मायने रखता है शिक्षकों के सम्बन्ध में बनने वाली नीतियां।  जो सही समय पर क्रियान्वित नहीं हो पाती है  जो अपने अच्छी शिक्षा के माध्यम से अच्छे विद्यार्थियों का निर्माण कर सकता है।  और उन्ही के माध्यम से राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। उनके प्रति जल्दी कोई निति बनती ही नहीं है। और जो बनती है उसपर अमल अगर 10 प्रतिशत भी कर ले तो बहुत ही बड़ी बात होती है।  सिर्फ दिखाने के लिए समय समय पर नियम लाते रहते हैं।  लेकिन उसे लागू करने में एकदम उदासीन हो जाते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण २००९ की शिक्षा के अधिकार का क़ानून।  जिसमे बहुत सी बातें शिक्षकों और विद्यार्थिओं के लिए कही गए हैं लेकिन जमीनी स्तर पर देखने पर आपको और हमें १० प्रतिशत भी क्रियान्वित होता हुआ नहीं दिख रहा होता है। 
सरकार की शिक्षा की उदासीनता का सबसे बड़ा यही उदाहरण हैं कि दो शिक्षा नीतियों के बिच लगभग चालीस वर्ष का अंतर है। अब आप सोच ही सकते हैं कि हमारी सरकारें कितनी जागरूक है अपने विद्यार्थियों के द्वारा देश का भविष्य सवारने के प्रति।  कि उसे एक नई शिक्षा निति लाने में मागभग चालीस वर्ष लग जाते हो। जबकि हर पंचवर्षीय योजना में एक नई निति न सही कम से कम कुछ बदलाव तो ला ही सकते हैं। लेकिन क्या है कि शिक्षा के प्रति द्वेष इतना ज्यादा है कि पांच दस की बात ही छोड़िये पुरे पैंतीस वर्ष से भी ज्यादा समय लगा देते हैं।  यह किसी एक सरकार का धोरण नहीं रहा है। अबतक के लगभग सभी केंद्र सरकारों एवं राज्य सरकारों का नजरिया एक जैसा ही रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज सरकारी विद्यालयों में प्रतियोगिता परीक्षाओं को पास करके आने वाले अच्छे शिक्षकों के बावजूद बच्चे पलायन नहीं करते।  वे वहीं पढ़ते और वही शिक्षक मन लगाकर पढ़ाते भी।  लेकिन ऐसा कहाँ है सरकार तो खुद ही उन्हें बंद करने के जुगाड़ में हैं।  
तो क्या हम यह कह सकते हैं की सब दोष उन शिक्षकों में है ! और अगर मान लेते हैं की सारी गड़बड़ी या दोष उन शिक्षकों में हैं तो उन पर निगरानी रखने वाली संस्थाओं में क्या गड़बड़ी या दोष नहीं हो सकता है ? एक शिक्षक के ज्यादा गड़बड़ी और दोष तो उनमे ही है।  जिनका काम है उन्हें चुनकर लाना।  सही से योजनाए बनाकर उसपर निगरानी रखना।  लेकिन वे अपनी जवाबदारी सिर्फ नियम बनाए तक रखते हैं उसके बाद उन्हें संगणकीय आकड़ों से मतलब रहता है।  जमीनी स्तर पर क्या हो रहा है , क्या नहीं हो रहा है।  इससे कुछ मतलब नहीं होता है।  अगर मतलब रखा लेंगे तो कहीं उनकी नीतियों में ही कोई कमी निकलकर सामने न आ जाये। 
आज हमे फिर से सोचने की जरूरत है कि सरकारी विद्यालयों में  विद्यार्थी रुकने का नाम क्यों नहीं ले रहे हैं? जबकि सरकार उन्हें सभी प्रकार की सुविधाएं दे रही है।  जैसे शालेय पोषण आहार ( विद्यार्थियों को एक समय का भोजन ) मुफ्त में गणवेश कॉपी कलम किताब और यहां तक की बस्ता यानि बैग भी मुफ्त ही उपलब्ध करवा रही है।  एक तरह से १ली से लेकर १२वीं  तक की पूरी शिक्षा मुफ्त है फिर भी नहीं रुक रहें हैं ।  यह आकड़े सिर्फ सरकारी विद्यालयों की ही नहीं है अर्ध सरकारी और निजी विद्यालयों में भी पढ़ने वाले विद्यार्थियों की भी यही हालत है। जबकि वहां पर उनके माता पिता उन्हें पढ़ाने के लिए मोटी से मोटी रकम खर्च करने को तैयार रहते हैं।  निजी विद्यालयों में विद्यार्थी विद्यालय ज्यादा छोड़ते नहीं हैं क्योंकि उनके माता पिता वहां उनके पीछे लगे रहते हैं। लेकिन उनकी पढ़ने की इच्छा धीरे धीरे कमजोर होती चली जाती है।  वे माँ बाप के डर से विद्यालय आते हैं लेकिन शरीर से तो बाहर ही रहते हैं। 
अगर सरकार सचमुच में शिक्षा के प्रति संवेदनशील है तो, उन्हें सबसे पहले शिक्षा के दो धुरियों शिक्षक-विद्यार्थी के बारे में सोचना होगा। शिक्षक एक ऐसा कुम्हार है अगर वह उन्मुक्त मन से काम कर दे तो एक मिट्टी को सोने से भी महँगा बना सकता है।  लेकिन इसके लिए उसे एक ऐसा माहौल देना होगा जहाँ सबसे पहले वह अपने आप को खुला महसूस कर सके।  जब खुद, खुला हुआ महसूस करेगा तभी वह अपने सानिध्य में आये विद्यार्थियों को भी खुला महसूस करवाते हुए उन्हें उंचाईयों के शिखर पर पहुंचाने का तन मन से से एक सार्थक प्रयास करेगा।  जहां  उसको,उसकी सफलता का तो पता नहीं लेकिन उसके विद्यार्थियों कि सफलता १०० प्रतिशत तक रहेगी। यह पुरे गारंटी के साथ वह अपने सफलता से साबित कर के दिखलायेगा। लेकिन उसके पहले  नीतियां व क़ानून इन दोनों को ध्यान में रखकर ही बनानी होगी। भले सुविधाएँ आप कुछ मत दीजिये।  लेकिन इन्हे एक उन्मुक्त माहौल देना होगा।  तभी एक उड़ाने का ईमानदारी पूर्वक प्रयास करेगा और दुसरा अपने मन में उड़ने के सपने का निर्माण कर सकेगा।  सपने बनाएगा तभी न उड़ने के बारे में सोच पायेगा। अब सपने नहीं रहेगा तो वह क्या कर पायेगा।  आज के बच्चों के पास सपने बहुत हैं लेकिन उन सपनो का निर्माण कैसे किया जाता है यह न उन्हें पता है।  और न ही उसे बताने वाले शिक्षक ही आप दे पा रहे हो। ये जब आप देंगे तभी आपके द्वारा बनायी जा रही सभी नीतिया सफल होगी। और हम फिर से पुरे विश्व में फिर से विश्वगुरु बनकर उभरेंगे। 


-BLOGGER अjay नायक
www.nayaksblog.com

2 comments:

  1. बहुत सही लिखा है sir,👌👌👌

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    1. धन्यवाद। सब आप लोगो के द्वारा साहस और हिम्मत देने का फल है। यानी अगर 100 में से पचास प्रतिशत हमारी मेहनत और 50 प्रतिशत आप लोंगो के साथ का है।

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