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Tuesday 19 January 2021

सर का जन्मदिन और वो बिछड़े पुराने यारों की खुशियां

 सर का जन्मदिन और वो बिछड़े पुराने यारों की खुशियां  

हमने अभी कुछ दिन पहले कुछ अपने विचार चंद लाईनों में लिखे थे। वह आज एकदम से हमारे और हमारे सभी साथियों पर सटीक बैठ रहे है।  वह है 

"खुशियाँ बहुत ही तेजी से उड़ जाती हैं। 
इसलिए इन्हें पकड़ने कि कभी कोशिश मत करना।  
उनके पास जाने कि कोशिश तो बिलकुल ही मत करना। 
बस जब भी आये या जाए उसे आराम से स्वीकार कर लेना। 
आप उसे हमेशा पाओगे, अपने ही पास बैठा। "


हम जब भी उसके पीछे भागे , वह हमशे दस कदम दूर भागी रहती थी।  जब उसे स्वीकार किये तो सर के जन्मदिन के रूप में खुशियों का सैलाब लेकर तुरंत पास आ गयी।  इसी बहाने पुरे २१ साल बाद फिर आप सभी से एक छोटी सी यादगार मुलाक़ात हो गयी। हमारे हिसाब से आप लोगों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा।  हाँ ये हो सकता है कि किसी के साथ कम हुआ हुआ होगा तो किसी के साथ हमारे जैसा भरपूर वाला अनुभव हुआ होगा। 

आज हमारे साथ कुछ ऐसा ही हुआ दोस्तों ! हमे पूर्ण विश्वास है कि शायद आपके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा! दोस्तों यह जनवरी मेरे जीवन में कुछ दुखों के साथ-साथ बहुत सी खुशियों को भी साथ लाया है। उन खुशियों में सबसे बड़ी ख़ुशी है अपने प्रिय रमाशंकर सिंह सर का ७५वा जन्मदिन हर्षोल्हास के साथ अपने विद्यालय जीवन के दोस्तों के साथ मनाना जो २१ साल पहले छूट गए थे।  

राजू का फोन आना कि मेरा भाई तरुण तुझसे कुछ बात करना चाहता है।  और हमने तुरंत हाँ बोल दिया की क्यों नहीं।  बोल दो की फोन कर ले।  फिर तरुण का फोन आता है और वे पूरी बात बतलाते हैं।  तरुण की बातों को सुनने के बाद आपको बताते हैं की हमारी ख़ुशी का तो ठिकाना नहीं था।  क्योंकि हम स्वयं एक शिक्षक हैं।  तो दूसरे विद्यार्थियों को हमेशा देखते थे की वे अपने गुरुजनो जन्मदिन या उनका सम्मान विद्यालय छोड़ने के उपरान्त २० साल बाद , २५ साल बाद , ३० साल बाद आकर मना रहे हैं।  तो मन में उठता था कि हम कब इकट्ठे होंगे और इसी तरह अपने शिक्षकों का जन्मदिन या उनका सम्मान करेंगे।  तो वो मौक़ा तरुण के रूप में आगे आकर दिया।  इस पुरे कार्यक्रम में सर के बड़े पुत्र मितेश भाई जिनके योगदान के बारे में कुछ लिख ही नहीं सकते हैं।  एक पुत्र के रूप में उन्होंने अपने पिता को जो सम्मान दिया वैसा सम्मान बहुत कम ही लोग दे पाते हैं। और उनका साथ अमित और तरुण ने बखूभी निभाया। सर के जन्मदिन के ही बहाने उन्होंने हमे भी अपने पुराने मित्रों को एक छत पर जो लाने का कार्य किया वह तो और भी सहराहनीय है। जिसके लिए हम सभी उनके जितने धन्यवाद या आभारी रहेंगे वह कम ही होगा।  लेकिन हमे फोन तरुण का आया इसलिए हम उनके सबसे ज्यादा आभारी हैं और रहेंगे भी । और इस प्रकार हम सभी १७ की शाम को ५ बजे इकट्ठे हो गए। 

आप सभी ने इस बिच एक चीज पर और गौर किया होगा। सर के अंदर आते वक्त के समय उनके चेहरे को देखा ही होगा।  जब वे हाल के बाहर थे तो एक अलग तरह का चेहरा था। लेकिन जैसे ही हाल कि लाईटें चालू हुयी वैसे ही उनके चेहरे कि फ़िदा ही बदल गयी थी।  और उस समय हाल कि तमाम लाईटें भी उस चेहरे पर उभरे एक अप्रितम ख़ुशी के सामने फीकी लग रही थी। और पूरा हाल उस अप्रितम ख़ुशी की जगमगाहट से सरोबोर हो चुका था। और यह ख़ुशी सिर्फ सर के चेहरे पर ही नजर नहीं आ रही थी।  वहां पर उपस्थित हर एक व्यक्ति और २० से ४० साल पुराने सभी विद्यार्थियों के चेहरे पर भी नजर आ रही थी। जैसे अपने विद्यालय के जीवन में चिल्लाना , बाते करना, मस्ती करना।  सब उसी में सबकुछ भूलकर की अब वे विद्यार्थी नहीं रहे अब एक जिम्मेदार व्यक्ति हैं।  लेकिन उस समय के लिए अपने आप को फिर से वहीं लेकर चले गए थे।  हमे नही लगता है कि किसी के दिमाग में भी थोड़ा सा भी अपने घर कि बातें या अपने काम धाम कि बातें उन ५ घंटों के बिच आयी हुयी होगी। 


एक विद्यार्थी को तो हम भूल ही गए।  जिसने इस प्रोग्राम को हिमालय की चोटी तक पहुँचाया। उसने आजतक किसी भी प्रोग्राम में सामने खड़े होकर कुछ नहीं बोला था।  लेकिन देखिये उसका जज्बा उसके प्रिय सर का जन्मदिन था इसलिए उसने एक बार में ही मंच पर खड़े होकर पुरे कार्यक्रम को सफल बनाने की जिम्मेदारी निभाई। और पुरे कार्यक्रम को हिमालय जितना सम्मान दिलाया। उसका नाम धीरेश है।  सचमुच धीरेश ने तो कमाल ही कर दिया। 

सर के परिवार के चेहरे पर कि ख़ुशी तो हम लोगों कि ख़ुशी से भी कई गुना ज्यादा थी।  क्योंकि आज वे अपनी जड़ को सम्मान भी दे रहे थे। ऐसा पल शायद ही किसी और सम्मान में मिलता होगा।  क्योंकि यहाँ सम्मान काम का नही था। यहां सम्मान किसी एक व्यक्ति का नहीं था।   यहाँ सम्मान एक परिवार का अपने जड़ के लिए था। यहां सम्मान एक परिवार का पाने हीरो के लिए था।  जिसने बड़े ही कष्टों  से  उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया, उन्हें बनाया, उन्हें खड़ा किया ।  वो भी तब, जब उसे  सबसे ज्यादा  जरूत थी कि कोई उसके जड़ में  रोज नही तो कम से कम महीने दो महीने में तो एक बार उसे सींच दे। फिर भी वह अपनी समस्याओं को आड़े नहीं आने दिया और अपने मनोबल के दम पर अपनी टहनियों के विकास में किसी भी समस्या का प्रभाव नहीं पड़ने दिया ( पिता का साया जल्दी उठ जाने के बाद पुरे परिवार की देख रेख ही नहीं उन्हें उनके मुकाम तक पहुंचने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी भले ही अपने सपनो से ही समझौता क्यों न करना पड़ा )। आखिर एक फलदार वृक्ष ऐसे ही तो तैयार होता है।  हमने पुरे परिवार के चेहरे पर एक अलग तरह की ख़ुशी देखी जो शायद ही कभी उनका पसंदीदा काम पूर्ण होने या मिल जाने पर भी मिली हो। खासकर तीन लोगों के चेहरे पर की ख़ुशी को हमने कुछ ज्यादा ही देखा।  उनके चेहरे पर गौरन्वावित करने वाली ख़ुशी थी।  वह थे सर के छोटे भाई डॉ साहेब , सर की लड़की और पुरे कार्यक्रम के कर्ता धर्ता मितेश जी। ये तीन के आलावा भी पुरे की ख़ुशी भी देखने वाली थी।  जैसे उनके देवता आज स्वयं बिना बुलाये ही उनके द्वार पर खड़े हों।  और फिर वे खुश भी हो रहे हैं और इतने खुश हो रहे हैं कि उसे जता भी नहीं पा रहे हैं।  भाई उन्हें उनके सम्मान के लिए आगे भी जो कुछ न कुछ करना है।  ऐसी ही हालत परिवार के सदस्यों की थी।  पूरा परिवार जब से हाल में आया था तब से सिर्फ बस मुस्करा ही रहा था। हमने परिवार के हर एक सदस्य के चेहरे पर अलग सी मुस्कान जो शुरू से लेकर अंत तक थी। 

यहां सम्मान एक विद्यार्थी का अपने प्रिय गुरु के लिए भी था। आज विद्यार्थी इसलिए भी इकट्ठे हुए थे कि भले  ही उन्होंने उस रात उस विद्यार्थी को रात के २ बजे डंडे से बहुत पिटा हो ।  पोछा लगाते वक्त उससे पोछा नही छिना।  या चाय भी उसी विद्यर्थी ने ही बना कर पिलाई जो सिर्फ शिक्षा लेने के लिए आया था। आज उन जैसे सभी विद्यार्थी अपने सर का सम्मान इसलिए भी कर रहे थे कि सर को जो देना था उसमे कभी भी किसी प्रकार कि थोड़ी सी भी कोताही नहीं बरती।  चाहे रात के २ बजे अपनी नीद को खराब करके पढ़ना-पढ़ाना हो या परीक्षा से २ महीने पहले पढ़ाना हो जब पढाई ख़त्म हो जाती हो। अपने शरण में आये हुए किसी भी विद्यार्थी को खाली हाथ नहीं जाने दिया। उन्हें कुछ न कुछ दिया।  जो मुकाम वह अपने गुरु के द्वारा उपलब्ध करवाने के बाद भी नहीं पा सके थे।  वे उस मुकाम को नहीं पाए तो क्या हुआ। अपने उस विद्याथी के द्वारा हर साल करके आजतक किसी न किसी रूप में पा रहे हैं। 

हमने सूना है अपने पिता से, कि सर बहुत ही वसूल के पक्के हैं। वे २००४ में रिटायर होने के बाद कभी विद्यालय नहीं गए। और यही नहीं वे ज्यादा खिन नहीं जाते हैं। लेकिन जब हमारे पिता का ऑपरेशन हुआ और वे घर आये तो सर सबसे पहले घर पर आये थे। और एक बात आपको बताता हूँ। चाचा नेहरू जिसके हम विद्यार्थीं हैं। और गर्व से कहते हैं की उस विद्यालय के विद्यार्थीं हैं।  उसे खड़ा करने में रमाशंकर सर का भी बहुत बड़ा हाथ है।  तब हम गर्व से बोल पाते हैं कि आओ हमारे विद्यालय को देखो। यह सब रमाशंकर सर जैसे वहां के शिक्षकों की मेहनत का नतीजा है कि इतना बड़ा विद्यालय है।  जिसका नाम आते ही आज भी लोग सम्म्मान के साथ खड़े हो जाते हैं। लेकिन समय के साथ धीरे धीरे वह रुतबा खोते चला गया हमारा विद्यालय।  जिसकी कसक आज भी सर के बातों में दिखती है जिसे हमने मेहनत से सींचा और बड़ा किया आज वह धीरे धीरे धराशायी होते चला जा रहा है।  और उसे बचने वाल कोई नहीं है।  

हम आशा करते हैं कि इस बार जो लोग करोना की वजह से छूट गए थे। उन्हें बुला नहीं पाए क्योंकि सिर्फ १०० व्यक्ति का ही परमिशन था। उन्हें भी अगले कार्यक्रम में बुलाएंगे। और फिर उनके सहयोग से एक बहुत बड़ा कार्यक्रम रखेंगे जो आने वाली पीढ़ियों को भी गौरान्वित करेगी।
ब्लॉगर अजय नायक
www.nayaksblog.com

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