पिता
वो जिम्मेदारियों के बोझ से टूट रहा था
मानो मौका मिलते ही खण्ड-खंडित हो जायेगा
लेकिन,ठहरा घर का पिता ना
ऐसे कैसे खुद को खण्ड-खंडित होने देता
उसे अपने नव पौधे को
विशाल छायादार वट वृक्ष जो बनाना था
उसे अपने नादान नासमझ परिवार का
उज्जवल भविष्य जो तैयार करना था।
इसलिए तो ,
अपनी सांस के टूटने तक
उस कड़क लकड़ी की तरह
खुद को कड़ा बनाये रख़ा
वो भी तब जब उसे सब पता था
कोई नौसिखिया भी आकर
उसके इस कड़क स्वभाव की वजह से
उसे, उसके गुरुर को चट से तोड़कर
खंड-खंडित करके मिटटी में मिला जायेगा।
लेकिन,ठहरा घर का पिता ना
सब कुछ जानते हुए भी, अपनी
जिम्मेदारियों से कैसे भाग सकता था
उसके अंश का भविष्य जो उसपर निर्भर था।
पड़ गया था शरीर बिस्तर पर
न हाथ हिल रहे थे न शरीर का कोई अंग
फिर भी अपने उन्ही गुस्सैल भरे आँखों से
मानो हम सब से कह रहे थे कि
जो सलुख, जो बर्ताव मैंने किया तुम्हारे साथ
वैसा कुछ तुम नहीं करना
मैं तो सब झेल गया, लेकिन
मुझे नहीं लगता है तुम लोग झेल पाओ।
एक तरफ हमे अपने जैसा बनने से मना कर रहे थे
दूसरी तरफ खुद अपने आखिरी पड़ाव पर भी
अपने पिता होने के धर्म का पालन
अपनी गुस्सैल आँखों से कर रहे थे।
इसे ही तो पिता कहते हैं, जो
अपने आखिरी पड़ाव पर भी
अपने पिता धर्म को नहीं भूलता।
बहुत बढिया अजयजी!👌 पिता तो आखीर पिता होता है!🙏
ReplyDeleteशुक्रिया रमेश सर
Delete👌👌👍
ReplyDeleteBahut sundar 👌👌❤️
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteअजय जी पिता इस महान व्यक्तित्व का वास्तवदर्शी सुंदर वर्णन
Deleteधन्यवाद महोदय.
DeleteVery nice sir
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