होली- नाच रहे हैं सारे
आज नाच रहे हैं मोर
मोरी बगिया मे, जोर-शोर से
मानो बरसने वाले हों मेघ
मोरे अंगना में, जोर-शोर से
उसकी एक नाच पे,
ता ता थईया करके
लोग झूम गए कुछ ऐसे
जैसे सावन की, पड़ रही हो फुवार
उड़ा आज ऐसा धूल ग़ुलाल
की हो गए सब रंग-बिरंगे
अपने परायों की इस दुनिया में
ना कोई रहा अपना, न कोई पराया
क्या बुढ़ा, क्या नौ जवान,
अरे! बच्चे, क्या महिलाएं
भूलकर अपनी-अपनी रंजो रंजिश
घुल गए एक ठंडई की गिलास मे
ये, है ही, ऐसा त्योहार
जहाँ एक दूसरे के गालों पे
भूलकर सबकुछ, पहुँच गये लगाने रंग
यहाँ अबीर की भी हैं,
अपनी एक अलग दाँस्ता
लगते ही एक दूसरे के गाल पर
मिटा देता है, सारे एक दूसरे के भेदभाव
ऐसा न है कोई, जग में कोई ऐसा त्यौहार
जहाँ काला हो जाता है, और काला
और अपना प्यारा गोरा हो जाता है,
रंग लगाकर घमंड से कोषों दूर।
-अjay नायक 'वशिष्ठ'
Nice poem
ReplyDeleteशुक्रिया दोस्त
DeleteMast sirji
ReplyDeleteशुक्रिया
DeleteGreat post 👍
ReplyDeleteNice👌👌👌
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